Friday 9 October, 2009

मैं क्यों लिखूं?

कल रात अप्पी आई थी। वैसे ही मुस्कुराते हुए, चमकीली आंखों के साथ पांच फीट तीन इंच की अप्पी कह रही थी इतना लिखते हो, मुझ पर कुछ लिखो न!

मेरी नींद खुल गई। काफी देर तक फिर अप्पी मेरे सामने खड़ी रही। बहुत यकीन करने पर ही यकीन हुआ कि वो सचमुच नहीं आई थी, वो सपने में आई थी। लेकिन वो क्यों आई? मैं तो उसे 18 साल से जानता हूं, तब से जब वो तीस साल की थी, और इन 18 सालों में जब वो कभी ऐसै मेरे पास नहीं आई तो आज क्यों आई? वो क्यों चाहती है कि मैं उस पर कुछ लिखूं।

एकदम झक गोरी अप्पी से मेरी मुलाकात कभी होनी ही नहीं थी। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? ठीक मेरे घर के सामने वाले घर में रह रही अप्पी अपने पति के साथ एकदिन अचानक हमारे घर आ गई। तब मेरे बेटे का दाखिला दिल्ली पब्लिक स्कूल की नर्सरी कक्षा में हुआ था, और उसके बेटे को भी दिल्ली पब्लिक स्कूल की नर्सरी कक्षा में दाखिला चाहिए था। पता नहीं किसने उससे कह दिया कि शायद मेरी जानपहचान है, और मैं उसके बेटे का दाखिला करा सकता हूं। वो अपने पति के साथ बिल्कुल मेरे सामने खड़ी थी, और मुस्कुराती हुई कह रही थी...मुझे तो अपने बेटे को डीपीएस में ही पढ़ाना है, और ये काम आप ही करा सकते हैं।

मैं हतप्रभ था। पहली मुलाकात और इतना हक ! बिना सोचे ही मैंने कह दिया कि कोशिश करूंगा। और फिर एक दिन अप्पी के बेटे को डीपीएस में दाखिला मिल गया। अप्पी फिर मेरे घर आई थी, मिठाई का एक डिब्बा लेकर। साथ में शुक्रिया का एक शब्द होठों में दबाए हुए। और फिर वो तारीख थी और पांच दिन पहले तक की तारीख थी, अप्पी अपने पति के साथ हमारे पूरे परिवार के दिल में समा गई थी। उसका पति मेरा दोस्त था, अप्पी मेरी पत्नी की दोस्त थी और उसका बेटा मेरे बेटे का दोस्त था।

अप्पी इतने सालों में मुझसे वो दो सौ बार मिली होगी, कभी मेरे घर आ कर कभी मेरे उसके घर जाने पर..लेकिन वो बस मुस्कुराती थी और मुस्कुराती थी। जब कभी हम उसके घर लंच या डिनर के लिए गए, अप्पी यूं ही मुस्कुराती हुई मिलती थी, और चाहे मैं चार घंटे बैठा रहूं..बस वो चुपचाप अपने पति और मेरी बातों को मुस्कुराते हुए सुनती थी।

मुझे नहीं पता कि मेरी पत्नी से उसकी क्या बातें होती थीं, ये भी नहीं पता उसके बेटे और मेरे बेटे के बीच क्या बातें होती थीं। करीब आठ साल पहले जब वो हमारे मुहल्ले को छोड़ कर दूसरी जगह चली गई उसके बाद भी हम वैसे ही दोस्त रहे।

आज से ठीक पांच दिन पहले मैं दफ्तर पहुंचा ही था कि मेरी पत्नी का फोन आया। फोन पर थोड़ी झिझकी सी आवाज़ और थोड़ी घबराई आवाज़ में उसने मुझसे पूछा क्या तुम्हें कोई खबर मिली? मैं ने कहा, कैसी खबर? दिन भर खबरों के व्यापार में रहता हूं किस खबर की बात तुम कर रही हो। पत्नी रो नहीं रही थी, पर रुआंसी थी...उससे भी ज्यादा सन्न थी..उसने कहा शायद अप्पी ने आत्म हत्या कर ली है।

इसके बाद न तो मेरे पास कहने को कुछ था न सुनने को।

मैंने गाड़ी वापस मोड़ ली। घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचा तो जो सुना वो सुनाई नहीं पड़ रहा था। मेरी पत्नी कह रही थी, अप्पी ने आत्म हत्या कर ली है। मेरी हिम्मत टूट रही थी। अपने पड़ोसी के साथ कार में बैठ कर बिना कुछ कहे और सुने मैं चल पड़ा था अप्पी के घर।

वहां मुझे सबसे पहले मिला मेरे बेटे का दोस्त..जो अब भी बच्चा ही है। मैंने उससे पूछा क्या हुआ? अप्पी के बेटे ने कहा, “कुछ नहीं पता। बस मम्मी पंखे से लटक गई थी।” उसकी आंखों में आंसू नहीं थे। उन आंखों में आंसू की जगह नहीं बची थी। वो तो शून्य में विलीन हो चुकी आंखें थीं।

भीड़ में कोई फुसफुसा रहा था, पति पत्नी में कल झगड़ा हुआ था और अप्पी ने अपनी जान दे दी।

मैं भीड़ की इस फुसफुसाहट को सुनना नहीं चाह रहा था। आज मुझे अप्पी अच्छी नहीं लग रही थी। मेरे सामने ही वो लेटी हुई थी, सफेद कपड़े में लिपटी हुई। लेकिन मैं नहीं चाह रहा था कि वो मुझे देख कर मुस्कुराए। मैं नहीं चाहता था उससे मिलना।

मैं तो उस अप्पी को चाहता था जो अपने बेटे को स्कूल में दाखिला दिलाने की चाहत लेकर मेरे पास आई थी। मैं उस अप्पी को क्यों चाहूं जो अपने बेटे को यूं ही छोड़ कर भाग गई। जब वो पहली बार मेरे पास आई थी तब उसकी आंखों में बेटे के लिए सपना था। मैं उसके इसी सपने से प्यार करता था। आज वो कैसे अपने ही सपनों से अपनी आंखें मूंद सकती थी? जो अपने बेटे की जिंदगी बनाने के लिए बिना सोचे विचारे एक अनजान आदमी के घर जाकर मनुहार कर सकती थी..वो इतनी स्वार्थी कैसे हो गई?

उसने क्यों नहीं सोचा कि उसके मर जाने का मतलब सिर्फ उसका मर जाना भर नहीं। उसके बाद उसके बेटे उसके पति और उसके उन दोस्तों का क्या होगा..जिनके लिए उसकी मुस्कुराहट संजीवनी से कम नहीं थी।

शायद इसीलिए अप्पी मेरे पास कल रात आई थी। वो अपनी कहानी लिखवाना चाह रही थी..लेकिन क्यों? उसने अपने पति के माथे पर, अपने बेटे की आंखों में और अपने दोस्तों के दिल पर जो कहानी लिख छोड़ी है...क्या उसे ही पन्नों पर उतरवाना चाह रही थी।

नहीं अप्पी, मैं कभी उसे प्यार नहीं कर सकता जिसका अपना स्वार्थ इतना बड़ा हो कि उसे आगे सब कुछ दिखना बंद हो जाए। मैं आज 18 साल की तुम्हारी दोस्ती को अलविदा कहता हूं...और इस दंभ के साथ कहता हूं..कि मैं तुम्हें नापसंद करता हूं। सिर्फ नापसंद। और मैं जिसे नापसंद करता हूं उसकी कहानी क्यों लिखूं?

3 comments:

Anonymous said...

फिर पागल कर दिया आपने। ये अप्पी कौन है?
sarita

डॉ .अनुराग said...

अजीब सी उदासी है ...कई सवाल मन में उमड़ते है .....कई बार लेख से बाहर फलांगने का मन करता है की विस्तार से अप्पी को देखूं.... पर आखिरी पंक्तिया ..बांध लेती है

Anonymous said...

क्यों लिखते हैं ऐसा?