Wednesday 18 January, 2017

Tuesday 20 December, 2016

रिश्तों की चादर


तन्हाई से बढ़ कर आदमी के लिए कोई सज़ा नहीं होती।
मेरे पिता मेरी मां की असमय मृत्यु के बाद अचानक तन्हा हो गए थे और उन्होंने अपनी ये तन्हाई किसी और पार्टनर की तलाश कर नहीं, बल्कि खुद हम बच्चों की मां बन कर दूर की।
ऐसे में जब मैं बड़ा हुआ तो पिता के साथ मेरे रिश्ते और प्रगाढ़ हो गए थे। हम दोनों एक-दूसरे से अपने मन की बातें साझा करने लगे थे। आमतौर पर जो बातें बच्चे मां से साझा कर लेते हैं, मैं पिता से करने लगा था। और पिता के साथ मेरा यह रिश्ता तब तक रहा, जब तक वो जीवित रहे।
मैंने ऐसा सुना था कि शादी के बाद बहुत सी महिलाएं नहीं चाहतीं कि उन्हें सास-ससुर के साथ रहना पड़े। ऐसे में अपनी शादी के तुरंत बाद जब मैंने अपनी पत्नी को अपनी पूरी कहानी सुनाई, तो एक रात वो कहने लगी कि पिताजी को हम लोग पटना से दिल्ली बुला लेते हैं।
पिताजी के रिटायर होने में अभी वक्त था। पर मैंने पिताजी से कहा कि आप समय से पूर्व रिटायरमेंट ले लीजिए और अब हमारे साथ रहने दिल्ली चले आइए।
पिताजी मेरी बात मान गए थे। वो दिल्ली चले आए थे।
बहुत निज़ी बात है, पर आपसे साझा करने में क्या संकोच करना?
एक सुबह पिताजी ने अपने पलंग की चादर को खुद बदल लिया। मेरी पत्नी अपने काम से मुक्त हो कर पिताजी के कमरे में गई और उनके बिस्तर एक ऐसी चादर को देखा, जो तकिया और कमरे से मैच नहीं कर रहा था, तो उसने उस चादर को हटा दिया। वो आलमारी से दूसरी चादर निकाल लाई और उनके पलंग पर बिछा गई।
थोड़ी देर बाद पिताजी कमरे में आए। चादर बदला देख कर उन्होंने मुझसे पूछा कि चादर किसने बदली?
मैं समझ नहीं पाया कि पिताजी चादर बदले जाने को लेकर इतना परेशान क्यों हैं? चादर बदल भी गई तो ऐसी क्या बड़ी बात हो गई? पर पिताजी पहली बार थोड़ा आहत से थे।
मैंने पत्नी को बुलाया और पूछा कि पिताजी के कमरे की चादर क्यों बदली?
पत्नी ने धीरे से कहा कि चादर इस कमरे से मैच नहीं कर रही थी, इसीलिए उसे हटा कर ये वाली चादर बिछा दी।
अब ये ऐसी घटना नहीं थी जिस पर चर्चा हो। लेकिन पता नहीं क्यों पहली बार पिताजी एकदम से खीझ उठे थे। फिर वो अचानक बहुत ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। मेरी तो समझ में ही नहीं आया कि ये क्या हुआ।
मैंने कभी पिताजी को ऐसे रोते हुए नहीं देखा था। मां के निधन के बाद भी नहीं। वो ख़ामोश भले हो गए थे, लेकिन रोए नहीं थे।
पर आज पिताजी एक चादर को लेकर अपनी बहू पर बरस पड़े थे। फिर वो ज़ोर-ज़ोर से रोने भी लगे थे।
पत्नी तो एकदम घबरा गई थी।
मैंने पिताजी को समझाने की कोशिश की। वो कुछ देर रोते रहे फिर चुप हो गए। फिर उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे कुछ देर अकेला छोड़ दो।
मैं और मेरी पत्नी हम दोनों कमरे से निकल आए। पूरे घर में अज़ीब सा माहौल हो गया था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि चादर बदलने की घटना इतनी बड़ी क्यों हो गई?
मैं पत्नी पर थोड़ा नाराज़ भी हुआ।
पत्नी बताया कि वो चादर कमरे से मैच नहीं कर रही थी। इतना कह कर वो खुद रोने लगी। अब पूरा घर ग़मगीन हो गया।
थोड़ी देर में पिताजी अपने कमरे से निकले। वो मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा बेटा, छोड़ो इस बात को। फिर उन्होंने पत्नी को भी समझाने की कोशिश की।
पत्नी कह रही थी कि बाबूजी मुझसे गलती हो गई। मुझे आपकी चादर नहीं बदलनी चाहिए थी। आप नई चादर लाए थे, तो मुझे लगा कि आपको मेरी बिछाई चादर पंसद नहीं आ रही। इसीलिए मैंने सबसे अच्छी चादर आपके बिस्तर पर बिछा दी।
पिताजी कह रहे थे, “नहीं बेटा, मुझे माफ कर दो। मुझसे गलती हो गई कि मैं तुम पर इतना नाराज़ हो गया। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।”
बहुत देर तक माहौल बहुत गमगीन सा रहा। अब सवाल था कि पिताजी ने नई चादर चुपचाप खरीदी ही क्यों? उन्हें अचानक नई चादर की ज़रूरत ही क्यों आ पड़ी? वो कभी मुझसे बताए बिना बाज़ार नहीं जाते थे। चादर, तौलिया और इस तरह की चीजें खरीदने तो कभी नहीं।
फिर आज क्या हो गया?
मैंने धीरे से पिताजी से पूछा कि आपने नई चादर खरीदी ही क्यों? पिताजी ने बहुत धीरे से कहा, “आज के दिन ही तुम्हारी मां से मेरी शादी हुई थी। मेरा मन किया कि मैं आज नई चादर बिछा कर सोऊं। इसीलिए मैं नई चादर खरीद लाया था। बस आज की बात थी, कल तो फिर तुम जो चादर चाहते बिछा देते।”
इतना कह कर उन्होंने अपनी आंखों को पोंछा और कमरे में चले गए।
मुझे बहुत सालों के बाद लग रहा था कि पिताजी अपनी पार्टनर के चले जाने के बाद इतने सालों तक किस तन्हाई से गुज़रते रहे। ये सत्य है कि वो हमारे साथ थे, लेकिन जीवन साथी की याद के साथ भी वो पूरी ज़िंदगी लिपटे रहे।
लेकिन आज इतना फिर से कहूंगा कि तन्हाई सचमुच बहुत बुरी होती है। न किसी को तन्हा छोड़िए, न खुद तन्हा रहिए। अपनों को अपने साथ रखिए, खुद को अपनों को साथ रखिए।
हर रिश्ते की चादर की अपनी खुशबू होती है। उसे बनाए रखिए। ठीके वैसे ही, जैसे मेरे पिता अपनी संगिनी के चले जाने के पंद्रह साल बाद भी नई चादर की खुशबू में उन पलों को जीते रहे। साल दर साल।
Sanjay Sinha
#ssfbFamily


पार्टनर



मेरी आज की कहानी पूरी पढ़ने से पहले ही आप कोई कमेंट मत कीजिएगा। मत कहिएगा मुझे सुप्रभात। आप एक दूसरे से भी सुप्रभात मत कहिएगा। मत लगाइएगा होड़ कि पहला कमेंट किसका है। आज आप पहले पूरी कहानी पढ़िएगा। उसे ठीक से समझिएगा। अपने दिल में झांकिएगा, फिर इस कहानी को अपनी वॉल पर साझा कीजिएगा। खुद से वादा कीजिएगा कि आप इस कहानी को अपने बच्चों को भी सुनाएंगे। उनसे कहिएगा कि रिश्तों की कहानी सुनाने वाले संजय सिन्हा ने आज की कहानी उनके लिए ही लिखी है। फिर शुरू कीजिएगा एक-दूसरे को सुप्रभात कहना गुड मॉर्निंग कहना। फिर आप वो सब कीजिएगा, जो आप रोज़ करते हैं। लेकिन अपने दिल में झांकिएगा ज़रूर, क्योंकि मुझे लगता है कि मेरी आज की कहानी के बहुत से पात्र हमारी-आपकी ज़िंदगी में भी समाहित हो सकते हैं।
मेरे पास चीन के सबसे बड़े शहर शंघाई से एक रिपोर्ट आई कि वहां फर्नीचर रिटेल आईकिया के एक कैफे ने शिकायत की है कि वहां बहुत से बुज़ुर्ग आकर घंटों बैठे रहते हैं। एक कप चाय या कॉफी का आर्डर करके वो चुपचाप अकेले बैठे रहते हैं और कभी-कभी तो यूं ही पूरा दिन काट देते हैं। अब रेस्त्रां में किसी को बैठने से रोका नहीं जा सकता, पर कैफे ने अपनी शिकायत में कहा है कि शहर के ढेरों बुज़ुर्ग वहां इस इंतज़ार में आते हैं कि शायद उन्हें कोई पार्टनर मिल जाए। शायद उन्हें कोई ऐसा मिल जाए, जिसके साथ वो अपना अकेलेपन साझा कर सकें। होटल वाले की शिकायत है कि इस तरह अकेले बुज़ुर्गों के आकर बैठ जाने से वहां नौजवान जोड़ियां अाने से करताने लगी हैं और होटल के बिजनेस पर इसका असर पड़ रहा है।
ये ऐसी रिपोर्ट नहीं थी कि इसे टीवी पर मैं हेडलाइन बना देता, लेकिन इस छोटी सी रिपोर्ट को पढ़ कर मेरी आंखों के आगे बहुत सी कहानियां घूमने लगीं।
मेरी आंखों के आगे मेरे पिता घूमने लगे।
मां की मृत्यु के बाद मैं अपने पिता के साथ था। लेकिन जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए पटना से भोपाल चला गया तो स्टेशन पर मुझे छोड़ने आए पिता की आंखों में मैंने आंसू के दो कतरे देखे थे। मैंने उनसे पूछा था कि क्या आपको अकेलापन लगेगा? पिताजी ने कहा था, “अरे नहीं, यहां सब ठीक से चलेगा, तुम आराम से अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना। मेरा क्या है, मैं तो जी चुका हूं, तुम्हें अभी बहुत कुछ करना है।”
तब मैं बच्चा था। इतना तो समझ में आ रहा था कि पिताजी को मेरा जाना थोड़ा आहत कर रहा है, पर पूरी तरह कुछ समझ नहीं पा रहा था।
मैं पटना से भोपाल चला गया, मामा के पास।
साल भर बाद पिताजी मुझसे मिलने के लिए भोपाल आए। मैंने बहुत गौर से देखा था कि पिताजी के बाल उस एक साल में पूरी तरह सफेद हो चुके थे। उनकी आंखों के नीचे काले घेरे बन गए थे। और मैंने पहली बार ही महसूस किया था कि मां की चर्चा छिड़ते ही उनकी आंखें छलछला आती थीं।
मुझे पहली बार अहसास हुआ था कि पिताजी को अब अकेलापन सालता है।
मैंने तब तो कुछ नहीं कहा था, लेकिन जैसे ही मेरी नौकरी लगी, मैंने पिताजी से अनुरोध किया कि अब आप अपनी नौकरी छोड़ कर दिल्ली मेरे पास चले आइए। पिताजी ने कहा कि जब तुम्हारी शादी हो जाएगी, तब आऊंगा। अभी तो तुम्हें सेटल होना है।
नौकरी के साल भर बाद ही मेरी शादी हो गई और मुझे याद है कि मैंने अपनी पत्नी से कहा था कि मैं पिताजी को साथ लाना चाहता हूं। पिताजी सरकारी अफसर थे और उनके रिटायर होने में अभी वक्त था। पर अपनी शादी के साल भर बाद ही मैंने पिताजी पर दबाव डाला कि आप अब हमारे साथ दिल्ली चलिए। पिताजी ने समय से पहले रिटायरमेंट के लिए आवेदन दिया और वो हमारे साथ पटना से दिल्ली चले आए।
फिर कभी मैंने पिताजी को अकेला नहीं छोड़ा। वो या तो हमारे साथ रहे या फिर तब तक बड़ौदा में सेटल हो चुके मेरे छोटे भाई के साथ।
पिताजी हम दोनों भाइओं, हम दोनों की पत्नियों के साथ दोस्त की तरह घुल-मिल गए थे। वो हमारे साथ वीडियो गेम खेलते, सिनेमा देखते, शॉपिंग करते और खूब खुश रहते। मैंने और मेरी पत्नी ने पिताजी के साथ सिनेमा हॉल में एकदम आगे की लाइन में बैठ कर रंगीला फिल्म देखी थी।
कभी-कभी हम पति-पत्नी को दफ्तर से आने में देर हो जाती तो वो हमारी पसंद का खाना बनाने की कोशिश करते और हमारे घर आने पर हमें सरप्राइज़ देते।
ये तो मेरे पिता की कहानी है। लेकिन मैंने अपने ही पिता के कई दोस्तों को, जिनकी पत्नी उनसे पहले संसार से चली गईं, बुढ़ापे में अपने अकेलेपन के दंश से जूझते हुए देखा है। मैंने ऐसे कई लोग देखे हैं, जिन्होंने अपने अकेलेपन से तंग आकर आत्महत्या तक कर ली। ऐसा नहीं कि उनके बच्चे नहीं थे, बहू नहीं थी, नाती-पोते नहीं थे। सब थे। पर किसी ने अकेले बुज़ुर्ग के दर्द को महसूस करने की कोशिश ही नहीं की।
मैं जानता हूं कि आज मैं आपको जो कुछ सुना रहा हूं, उसमें कुछ भी नया नहीं है। आप सब इस सत्य को जानते हैं। समझते हैं। पर क्योंकि कहानी की शुरुआत शंधाई के आईकिया कैफे से हुई है, जहां के प्रबंधन ने शिकायत की है ढेरों बुज़ुर्ग किसी एक पार्टनर की तलाश में सारा-सारा दिन कैफे में काट देते हैं, इससे उनके बिजनेस पर असर पड़ रहा है, तो मैं आपको फिर लिए चलता हूं चीन।
चीन में कुछ साल पहले एक बच्चा पैदा करने की पॉलिसी बनी थी। अब वहां बुजुर्गों की आबादी काफी बढ़ गई है। ऐसा माना जा रहा है कि 2050 तक चीन की पूरी आबादी में हर चौथा आदमी 65 साल से अधिक उम्र का होगा। अभी के आंकड़ों पर ध्यान दें तो चीन में 30 फीसदी से अधिक लोग 80 साल से ऊपर के हैं। इनमें से जिनकी पत्नी या पति की मृत्यु हो गई है, वो पूरी तरह तन्हा हो गए हैं। बच्चे अपने घर-संसार में व्यस्त हो गए हैं। ऐसे में तमाम बुजुर्ग अपने लिए ऐसे जीवन साथी की तलाश करते हैं, जिससे साथ बातचीत करते हुए उनका बाकी का जीवन कट जाए। और इसी इंतज़ार में वो कैफे में आते हैं कि कोई उनकी तरह तन्हा यहां आए तो वो उससे दोस्ती कर लें, रिश्ते बना लें।
ये चीन की रिपोर्ट है।
हमारे यहां के बुज़ुर्ग बुढ़ापे में अपने लिए पार्टनर नहीं तलाशते। वो अपना बुढ़ापा अपने बच्चों के साथ ही काटते हैं। जिनकी कोई संतान नहीं, उनकी कहानी बिल्कुल अलग है, उनका दुख भी अलग है। लेकिन जिनकी संतान हैं, उनमें से भी कइयों की कहानियां बहुत अलग हैं।
सारी कहानियां सामने नहीं आतीं। सभी लोग सत्य को कह नहीं पाते। पर मैं ऐसे तमाम बुज़ुर्गों को जानता हूं, जो अपने बेटे-बहू के घर में रह कर भी तन्हाई में ज़िंदगी गुजार रहे हैं। संजय सिन्हा की कहानी आज आपके लिए नहीं, उनके लिए भी नहीं जो इस दंश को सह रहे हैं। रिश्ते वाले बाबा की कहानी आज उस पीढ़ी के लिए है, जिनके मां-बाप कुछ वर्षों के बाद तन्हा होंगे। मैं अपनी कहानी से उन्हें संदेश देना चाहता हूं कि अपने माता-पिता का ख्याल रखिएगा। ये याद रखिएगा कि वो आपके भविष्य के लिए अपना सबकुछ लुटा देते हैं। उन्हें तन्हा मत छोड़िएगा। उन्हें उनके पार्टनर की कमी मत खलने दीजिएगा। उनका बुढ़ापा किसी रेस्त्रा में एक अनजान आस के साथ गुजरने देने के लिए मत छोड़िएगा।
आपको बनना है अपने पिता और अपनी मां की उम्मीद। उनका पार्टनर। आप बेटा हों या बेटी, अपने बुज़ुर्गों का दोस्त आपको बनना है। चीन और अमेरिका में सोशल सिक्योरिटी सरकार की ओर से दी जाती है। पर भारत जैसे देश में आप ही उनकी सोशल सिक्योरिटी हैं। ध्यान रखिएगा, पैसे से तन्हाई नहीं दूर होती। तन्हाई दूर होती है आदमी के साथ से। ये साथ बनाए रखिएगा। आज आप जो देंगे, वही पाएंगे। हो सकता है आपके माता-पिता ने ये गलती भी की हो कि उन्होंने अपने बुजुर्गों का ध्यान न रखा हो, पर आप इस कुचक्र को तोड़ दीजिएगा। इसके टूट जाने में ही जीवन ‘रंगीला’ है, अन्यथा एक समय के बाद ये शाप बन जाता है।
Sanjay Sinha
#ssfbFamily

Friday 14 September, 2012

वो एक सितारा...

ये आर्टिकल मैंने पिछले साल 25 दिसंबर को लिखा था। सोचा था ब्लॉग पर पोस्ट करूंगा, लेकिन रह गया। समय के साथ बात पुरानी लगने लगी, लेकिन शाहरुख की नई फिल्म 'जब तक है जान'  के पोस्टर को देखा और पुरानी यादें ताजा हो गई। और बस....उस पुराने आर्टिकल को आज पोस्ट कर रहा हूं। .....बहुत सी पुरानी यादों के साथ....
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पिछले हफ्ते शाहरुख खान से मिला। वो हमारे दफ्तर आए थे, हम काफी देर तक साथ बैठे, फिर दफ्तर की कैंटीन में हमने रात एक बजे खाना खाया, गप-शप की और सर्द रात में वो करीब ढाई बजे दिल्ली वाले अपने घर के लिए निकल गए।

शाहरुख खान से हमारी बातचीत का बहुत बड़ा हिस्सा उनकी फिल्म डॉन-2 थी, और फिर डिनर के वक्त उनके पहले टीवी सीरियल फौजी की यादें थीं। हमने पिछले 24 साल की पुरानी यादों को दिल खोल कर ताजा किया, और ये याद करके हम खूब हंसे भी उन दिनों शूटिंग में क्या-क्या मजे करते थे। उन दिनों मैं दिल्ली के अखबार जनसत्ता में नया-नया लगा था, और साथ में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) में कोर्स कर रहा था। मेरी ड्यूटी रात में होती थी, इसलिए दिन में मैं आराम से क्लास अटेंड कर रहा था। बेफिक्र मैं पूरी सैलरी अपने इंस्टीट्यूट की कैंटीन में उड़ा दिया करता था, और दोस्तों के साथ चाय और समोसे के बीच जिंदगी के फलसफे को तलाशा करता था।

उन्हीं दिनों हमारे क्लास की एक लड़की (जो बाद में फौजी के लीड रोल में शाहरुख के साथ थी) ने शाहरुख से मुलाकात कराई और कहा ये भी पत्रकार बनने वाले हैं। सिर्फ बताने के लिए बता रहा हूं कि जिस साल हम आईआईएमसी में पढ़ रहे थे, उसी साल शाहरुख दिल्ली में जामिया इंस्टीट्यूट से जर्नलिज्म का कोर्स कर रहे थे। लेकिन तब भी ऐक्टिंग उनका पहला पैशन था, और इसी सिलसिले में उनकी मुलाकात उस लड़की से हुई थी, जो ड्रामा वगैरह में काफी दिलचस्पी रखती थी।

शाहरुख पहली मुलाकात में ही काफी गर्म जोशी से मिले। फिर मैं कई बार फौजी की शूटिंग में सेट पर गया, और हमने जनसत्ता में शूटिंग की रिपोर्ट भी छापी। मैं पढ़ाई बस शौकिया कर रहा था, क्योंकि बाकी सारे स्टुडेंट को पढ़ाई के बाद ऐसी ही नौकरी की दरकार थी, जो मेरे पास पहले से थी।

तब शाहरुख भी पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन उनके चेहरे पर वही बेफिक्री थी, जो मेरे भीतर थी। मैं पढ़ रहा था क्योंकि मेरे पास वक्त था, और मेरी नौकरी में इस डिग्री से कोई चार चांद नहीं लगने जा रहा था। शाहरुख पढ़ रहे थे, क्योंकि थिएटर करने के बाद उनके पास भी वक्त था, और यकीनन उनकी डिग्री से भी उनकी एक्टिंग के करीयर में चार चांद नहीं लगने वाले थे।

लेकिन तब पत्रकारिता, थिएटर और फिर टीवी सीरियल में लीड रोल तीनों आपस में मिल कर भी जुदा-जुदा थे। शाहरुख टाइम पर शूटिंग करने पहुंचते, दोस्तों को खूब हंसाते, क्लासिक सिगरेट से छल्ले उड़ाते और जितना पैसा जेब में होता उसे फक्कड़ भाव से लुटा कर चले जाते।

फौजी टीवी पर आने लगा था। दिल्ली का लड़का दिल्ली में ही हीरो बन चला था। शाहरुख शूटिंग के दौरान ही पॉपुलर होने लगे और लगने लगा कि ये हीरो टीवी के कई और सीरियल में आएगा। फौजी के बाद सर्कस आया। लेकिन शाहरुख की ये मंजिल नहीं थी।

हमारी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। मैं नौकरी में व्यस्त हो गया, मेरी क्लास वाली लड़की पता नहीं कहां चली गई। शाहरुख मुंबई चले गए।

फिर शाहरुख के बारे में कुछ बताने की जरुरत नहीं। बाकी की कहानी तो खुली किताब है। दीवाना से लेकर डॉन-2 तक का सफर आपको मुझसे ज्यादा पता है।

समय बीतता गया। मैं प्रिंट मीडिया से निकल कर इलेक्ट्रानिक मीडिया में चला गया। फिर कुछ सालों के लिए अमेरिका चला गया और फिर भारत वापस आकर दुबारा इलेक्ट्रानिक मीडिया का हिस्सा बन गया। कई आर्टिकल लिखे, किताब लिखी, पूरी दुनिया घूमा, रिपोर्टिंग की, नेताओं से मिला, अभिनेताओं से मिला लेकिन शाहरुख नाम का वो लड़का जिसे आज मैं आप कह कर संबोधित कर रहा हूं, मेरी जेहन से कभी मिटा नहीं।

पत्रकारिता की वजह से हम कई बार मिले, कई बार फोन पर बातें हुईं।

लेकिन पिछले हफ्ते की मुलाकात कुछ अलग सी थी। हम दोनों के लिए। हमने पुरानी यादों को ताजा किया। शाहरुख ने पूछा वो लड़की कहां है? वो लड़की जो पढ़ाई खत्म होते ही कहीं चली गई थी, जिससे मैं पूरे 23 सालों से नहीं मिला, हालांकि उसने पिछले साल मुझे कहीं सात समंदर पार से फोन किया था। वो फेस बुक पर मुझे मिली थी और मैंने अपना नंबर उसे फेसबुक पर भेजा था।

लेकिन उस दिन जब शाहरुख खान से मुलाकात हुई तो उन्होंने नैपकिन से हाथ साफ करते हुए एकदम उसके बारे में पूछ लिया। जाहिर है पहले टीवी सीरियल की अपने अपोजिट हीरोइन से उनका कोई वास्ता दुबारा नहीं रहा होगा तभी उन्हें उनके बारे में पता नहीं होगा। लेकिन 23 सालों बाद उन्होंने उसके बारे में क्यों पूछा?

शाहरुख खान फौजी से निकल कर मुंबई चले गए थे और फिल्मों में व्यस्त हो चले थे। फौजी की उस हीरोइन को तब चाह कर भी याद करने का वक्त उन्हें नहीं मिला होगा। समय ने उन्हें सितारा बना दिया और फौजी की वो हीरोइन कहीं धुंधलके में खो गई।

वो मेरी दोस्त थी और शाहरुख से उसी ने मुझे मिलवाया  था। हमारी तिकड़ी कुछ समय दिल्ली में मस्ती भी करती रही। पत्रकारिता, पढ़ाई और फौजी शूटिंग के दिन गुजर गए। हम तीनों अपनी अपनी जिंदगी में खो गए।

दफ्तर की कैंटीन में रात के दो बजे हमने उस लड़की को याद किया। मैंने कहा कि वो कहीं विदेश में है। मैंने ये भी बताया कि पिछले साल हमारी बात हुई थी। लेकिन ताजा तरीन नहीं पता।

शाहरुख खामोश रहे, फिर सिगरेट पी। हम नीचे साथ साथ उतरे। प्रियंका चोपड़ा अपनी कार में बैठीं, शाहरुख अपनी अलग कार में। काले रंग की बीएमडब्लू में। रात के कोई ढाई बज चुके होंगे। घना कोहरा था, भयंकर सर्दी थी। शाहरुख से नीचे उतरते हुए मैंने पूछा दिल्ली की सर्दी याद आती है?

शाहरुख ने चहकते हुए कहा था, “बहुत याद आती है।“

मैंने शाहरुख से चलते-चलते ये भी पूछा था इतनी रात में कहा जाएंगे। तब शाहरुख ने कहा था दिल्ली वाले घर में। हम गले मिले और फिर मिलने का वादा कर अलग हो गए।

कोहरा बहुत था, मेरे लिए घर जाना मुश्किल लग रहा था। मैं अपने ड्राइवर से पूछना चाह रहा था कि गाड़ी चलाने में मुश्किल आएगी? मैं उससे कुछ पूछता इसके पहले ही उसने मुझसे पूछा, “साहब शाहरुख खान इतनी रात में अपनी मां से मिलने गए हैं?”

मां से? मैं चौंका। तो ड्राइवर ने साफ किया। उसने कहा कि जब आप प्रियंका मैडम को बाय कह रहे थे तब नीचे उतरते हुए उन्होंने मुझसे पूछा था कि कहीं टॉर्च मिल जाएगी? मुझे अपनी मां से मिलने जाना है।

शाहरुख अपनी मां से बेइंतहा मुहब्बत करते थे, करते हैं। सुना था। उन्होंने मुझसे कहा था घर जाउंगा, लेकिन ये नहीं कहा था कि इतनी रात वो अपनी मां से मिलने उनकी मजार पर जाएंगे।

ये शाहरुख खान हैं, जो 23 साल पुरानी दोस्त को याद करते हैं, जो रात के दो बजे धुंध में अपनी मां की मजार पर अकेले जा कर उनसे गुपचुप बातें करते हैं।

मैंने ड्राइवर से कहा घर चलो। उसने कहा धुंध है, जरा मुश्किल आएगी।

मैं मन ही मन सोच में पड़ गया। इतनी धुंध में शाहरुख खान गए हैं मजार पर। उन्हें न रात का खौफ है न कोहरे का। वो इतने बड़े सितारे हैं कि दिन में चाह कर भी मां से मिलने नही जा सकते। लाखों लोगों की भीड़ उन्हें उन्हीं की मां से नहीं मिलने देगी।

इसलिए दिल्ली आकर वो अक्सर रात में मां से मिलते हैं।

मेरा ड्राइवर कह रहा था, "साहब कोहरे में मुश्किल आएगी" और....शाहरुख इस कोहरे को चीरते हुए मां से मिलने जा रहे थे।

बहुत सोचा, और जो समझा वो यही कि जो यादों को जिंदा रखते हैं, जो यादों की परवाह करते हैं और जो उन यादों से मिलने के लिए धुंध को चीर देते हैं वही सितारा बनते हैं। वर्ना क्या हम सभी सितारा नहीं बन जाते?

Saturday 24 October, 2009

वो गर्म हथेलियां...


परसों अमिताभ बच्चन से मुलाकात हुई। इससे पहले कई बार मिल चुका हूं। बहुत सी मुलाकातें याद नहीं हैं, लेकिन पहली मुलाकात याद है। 1980 में मां की मृत्यु के बाद लग रहा था कि जिंदगी बेमानी है, पढ़ाई-लिखाई का कोई मतलब नहीं, मौत ही जिंदगी का सबसे बड़ा सत्य है। और अपने इसी श्मशान वैराग्य भाव से मैंने बहुत से दिन यूं ही भ्रमण करते हुए गुजार दिए, और इसी सिलसिले में मेरा तब कश्मीर जाना हुआ।
एक दोपहर पहलगाम के पास कहीं लगी भीड़ को चीरता हुआ मैं भी तमाशा देखने पहुंच गया था, और तब मुझे पता चला कि वहां अमिताभ बच्चन की किसी फिल्म की शूटिंग हो रही है। मैं भीड़ में सबसे आगे खड़ा था, और वहां अमिताभ बच्चन परवीन बॉबी के साथ एक ही लाइन पर बार बार थिरक रहे थे। तब मुझे फिल्म का नाम पता नहीं था, लेकिन गाने के बोल थे...इसको क्या कहते हैं....एल--वी-ई।
जैसे ही फिल्म की शूटिंग रुकी बहुत से लोग अमिताभ अमिताभ चिल्लाते हुए आगे बढ़े। मैं भी भाग कर अमिताभ बच्चन के पास पहुंच गया। चारों ओर पुलिस का घेरा था लेकिन मेरे दिल पर पुलिस का कोई खौफ नहीं था। जब तक कोई रोकता, टोकता मैं अमिताभ के सामने था, और अपने फूलते दम के बीच मैंने अमिताभ की ओर अपनी नन्हीं हथेली बढ़ा दी। अमिताभ मेरी ओर देख कर मुस्कुराए और उन्होंने पूछा - पढ़ते हो? मैंने हां में सिर हिलाया और अमिताभ ने मेरी हथेली की ओर हाथ कर दिया। उनकी बहुत चौड़ी हथेली के बीच मेरी एकदम छोटी सी हथेली ऐसे समा गई थी, जैसे कभी मैं मां के सीने में समा जाया करता था। कुछ सेकेंड की ये मुलाकात वहीं खत्म हो गई।
मैं वापस घर चला आया था, और पढ़ाई में जुट गया था। रात में सोते हुए कानों में अमिताभ की आवाज़ गूंजा करती थी - पढ़ते हो?
तब हमारे शहर में बहुत से सिनेमा हॉल नहीं थे, और जो थे उसमें सारी फिल्में रिलीज होने के कई महीनों बाद लगती थीं। स्कूल की किताबों के बीच मेरी आंखें तलाशा करती थीं, अमिताभ बच्चन की फिल्में। मुझे लगता था कि अमिताभ बच्चन की जितनी फिल्में लगेंगी मैं देखूंगा। मेरे बाल मन में ये था कि शायद शूटिंग के वक्त अमिताभ बच्चन से हाथ मिलाने का वो सीन भी उसमें आ गया हो।
और ऐसे ही मैं अमिताभ बच्चन की त्रिशूल, मुकद्दर का सिकंदर और बहुत सी फिल्में देख गया। बिन मां का मैं, पिता संत- ऐसे में मुझे ना तो कोई रोकने वाला था और ना टोकने वाला। स्कूल और सिनेमा हॉल दोनों मेरी जिंदगी के सबसे अहम हिस्सा बन गए थे। सिनेमा हॉल के बाहर मेरी मां के सीने जितनी विशाल अमिताभ की हथेली मुझे पुकारती रहती थीं और यही वजह थी कि अमिताभ बच्चन के हाथों की वो गर्मी मैं कभी भूल ही नहीं पाया जिसे मैने पहलगाम की सर्द हवाओं के बीच महसूस किया था।
अपने उम्र के जिस पड़ाव पर मैं त्रिशूल देख रहा था उस पड़ाव पर मुझे फिल्मों की कहानी कुछ-कुछ सच लगा करती थी। अमिताभ बच्चन की मां फिल्म में मर रही थी, और मरते हुए उसे उसका सच बता रही थी कि तुम्हारा बाप आर के गुप्ता है.....और तभी हॉल में एक तल्ख सी आवाज़ गूंजी मिस्टर आर के गुप्ता मैं रहा हूं।
मरती हुई मां के हाथों को अपने हाथों में थामे..एकदम लाचार और बेबस अमिताभ को देख कर मुझे लगने लगा कि अमिताभ बच्चन की मां सचमुच मर गई हैं। मैं आ रहा हूं...ये चार शब्द मेरे कानों में जीने की चाहत की तरह गूंज रहे थे, और आर के गुप्ता को मिटा देने की तमन्ना मुझमें नई उर्जा भर रही थी – मेरी जेब में पांच फूटी कौड़ियां नहीं है, और मैं पांच लाख का सौदा करने आया हूं – ये वाक्य मुझे आगे बढ़ने को उकसा रहे थे।

जिंदगी भर सरकारी नौकरी में रहे मेरे पिता जो मां की मौत के बाद गुमसुम से हो गए थे, वे मेरे लिए देवता समान थे। लेकिन इस देवता समान पिता के बेटे ने अपना सहारा ढूंढ लिया था अमिताभ बच्चन में। उसके दिलो दिमाग में ये बात बैठ गई थी कि बिना पांच फूटी कौड़ियों के भी पांच लाख का सौदा हो सकता है, बस चाहिए वो आत्मविश्वास और वो जिद..जो अमिताभ की आंखों थीं।
और फिर मैंने देखी मुकद्दर का सिकंदर- फिल्म में अमिताभ को खान बाबा बता रहे थे, हंस सिकंदर-हंस...तकदीर तेरे कदमों में होगी..तू मुकद्दर का सिकंदर होगा...और इसी फिल्म में अमिताभ एक दिन अपनी बहन से कह रहे थे - मकान उंचा होने से इंसान उंचा नहीं हो जाता... ये सब सारी बातें किसी के लिए तालियों की गड़गड़ाहट के लिए लिखी गई होंगी लेकिन मेरे लिए अमिताभ के मुंह से निकली सारी बातें एक एक कर गुरुमंत्र बनती चली गईं।
फिर मैंने अमिताभ की एक-एक कर सारी फिल्में देखीं, और उसी में देखी कालिया, जिसकी शूटिंग मैने पहलगाम में देखी थी। लेकिन तब तक मैं फिल्मों और शूटिंग का सच समझ चुका था। लेकिन जो नहीं समझना चाहता था, वो ये कि अमिताभ मेरे लिए फिल्मी हीरो भर नहीं रह गए थे ..वो मेरे लिए कुछ ऐसे बन गए थे...जिनकी हथेलियों के बीच मेरी मां का सारा प्यार सिमटा हुआ था।
कहीं से पंद्रह रुपए में मैं अमिताभ बच्चन का एक पोस्टर खरीद लाया था, उसे फ्रेम करा कर मैने अपने घर के छोटे से ड्राइंग रूम में टांग दिया था। घर पर आने वाले पिताजी से पूछा करते थे कि आपने अमिताभ बच्चन की तस्वीर क्यों टांग रखी है, तो पिताजी मुस्कुरा कर कहते..बेटे की चाहत है।
वो तस्वीर मेरे घर पर टंगी रही जब तक मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। ग्रेजुएशन के बाद मैं दूसरे शहर गया आगे पढ़ने। और वो तस्वीर वहीं छूट गई। लेकिन मन में अमिताभ की तस्वीर टंगी रही, जस की तस।
फिर मैं जनसत्ता में नौकरी करने आ गया। और यहीं एक दोपहर मेरी मुलाकात अमिताभ बच्चन से एक समारोह में हो गई। तब तक अमिताभ बच्चन की फिल्में पिटने लगी थीं। जादूगर अजूबे जैसी फिल्में एक-एक टिकट को तरसती नजर आने लगी थीं। मैं अमिताभ से मिला। फिर मैने सहज भाव से उनकी हथेलियों के आगे अपनी हथेलियों को आगे कर दिया था...फिर उनकी चौड़ी हथेलियों के आगे मेरी नन्हीं हथेलियां थीं। और एक बार फिर कई साल पहले मर चुकी मेरी मां के सीने में मैं खुद को समाता हुआ महसूस कर रहा था।
फिर कई बार कई समारोहों में मेरी मुलाकात अमिताभ बच्चन से और हुई...कई बार बातें हुईं और धीरे धीरे अमिताभ मेरे लिए हीरो से बढ़ कर मां में बदलते चले गए।
अब समय आ गया कौन बनेगा करोड़पति का। मेरी पत्नी कौन बनेगा करोड़पति के शुरुआती शो में हिस्सा लेने पहुंच गई थी मुंबई और मैं भी था उसके साथ। अमिताभ बच्चन ने मेरी पत्नी से पूछा आपके साथ कौन आया है, तो मेरी पत्नी ने दर्शकों के बीच बैठे मेरी ओर इशारा किया। अमिताभ मुझे देख कर मुस्कुराए, और शो शुरु हो गया। एक सवाल के जवाब में मेरी पत्नी उलझ गई उसे लगा अमिताभ उसे गुमराह कर रहे हैं..लेकिन अमिताभ के चेहरे की मायूसी मुझे बता रही थी कि वो जो इशारा कर रहे हैं, उसे मेरी पत्नी समझे...लेकिन पत्नी नहीं मानी और कुछ रकम लेकर वो शो से बाहर हो गई...जैसे ही शो खत्म हुआ अमिताभ अपनी कुर्सी से उतर कर आए और मेरी पत्नी की ओर देख कर अफसोस जताया, और कहा कि आप और जीत सकती थीं, कम जीत कर जा रही हैं।
जो हुआ सो हुआ। मेरी पत्नी को पैसे का कोई क्रेज नहीं था। वो अमिताभ बच्चन से बात करके, उनसे मिलकर खुश हो रही थी। फिर हमने अमिताभ बच्चन के साथ कुछ लम्हे गुजारे, खाना खाया और मैं उन बड़ी-बड़ी हथेलियों को अपनी नन्हीं सी हथेलियों में समेट कर वापस आ गया।
अमिताभ बच्चन से फिर मुलाकातें हुईं। लेकिन परसो जो मुलाकात हुई तो मुझे उनके साथ पहलगाम में हुई वो मुलाकात ज्यादा याद आई। मैं गुड़गांव के लीला होटल में अमिताभ बच्चन से मिलने गया था। मेरे मन में इच्छा थी कि इस मुलाकात में मैं उनके पांव छू लूंगा, और पक्के तौर पर यही सोच कर गया था। लेकिन वहां पहुंचते ही मेरी हथेलियां मचल उठीं, मां के सीने से लगने को। मैंने कोई कोशिश नहीं की और मेरी हथेलियां उनकी हथेलियों में समा गईं। तब मेरे पास न तो कहने को कुछ था और न सुनने को।
अमिताभ बच्चन मेरी ओर देख कर मुस्कुरा रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि प्रोफेशनल हैसियत से मैं उन्हें मिस्टर बच्चन कहूं या अपने ड्राइंग रूम में टंगी तस्वीर को याद करके अमिताभ बच्चन पुकारूं या फिर गर्म गर्म हथेलियों के बीच सिमटी अपनी हथेलियों को यूं ही उनमें समेटे हुआ मां कह कर उसी में समा जाऊं!
घर आया तो बेटे ने कैमरे में तस्वीरें देखीं। मैंन सुबह ही उसे बताया था कि अमिताभ बचच्न से मिलने जा रहा हूं। उसने पूछा अमिताभ बच्चन से क्या बातें की? मैं चुप रहा। फिर पत्नी ने पूछा अमिताभ बच्चन को तुमने मेरा हैलो कहा या नहीं?
मैं चुप था। मेरी पत्नी और बेटे को लगता रहा कि मैंने अपना समय बर्बाद कर दिया, और अमिताभ से मिल कर भी मैं कोई बात नहीं सका। अब मैं उनसे क्या कहूं? कैसे बताऊं कि अमिताभ बच्चन की हथेलियों में जब मेरे हाथ समा जाते हैं तो मैं कुछ कहने और सुनने की हालत में नहीं होता।
बचपन में अपनी मां को खो देने वाला मैं अगर कभी मां को सामने पा लूंगा तो क्या उससे बातें करुंगा? मैं तो उसके सीने में समा जाऊंगा....

Friday 9 October, 2009

मैं क्यों लिखूं?

कल रात अप्पी आई थी। वैसे ही मुस्कुराते हुए, चमकीली आंखों के साथ पांच फीट तीन इंच की अप्पी कह रही थी इतना लिखते हो, मुझ पर कुछ लिखो न!

मेरी नींद खुल गई। काफी देर तक फिर अप्पी मेरे सामने खड़ी रही। बहुत यकीन करने पर ही यकीन हुआ कि वो सचमुच नहीं आई थी, वो सपने में आई थी। लेकिन वो क्यों आई? मैं तो उसे 18 साल से जानता हूं, तब से जब वो तीस साल की थी, और इन 18 सालों में जब वो कभी ऐसै मेरे पास नहीं आई तो आज क्यों आई? वो क्यों चाहती है कि मैं उस पर कुछ लिखूं।

एकदम झक गोरी अप्पी से मेरी मुलाकात कभी होनी ही नहीं थी। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? ठीक मेरे घर के सामने वाले घर में रह रही अप्पी अपने पति के साथ एकदिन अचानक हमारे घर आ गई। तब मेरे बेटे का दाखिला दिल्ली पब्लिक स्कूल की नर्सरी कक्षा में हुआ था, और उसके बेटे को भी दिल्ली पब्लिक स्कूल की नर्सरी कक्षा में दाखिला चाहिए था। पता नहीं किसने उससे कह दिया कि शायद मेरी जानपहचान है, और मैं उसके बेटे का दाखिला करा सकता हूं। वो अपने पति के साथ बिल्कुल मेरे सामने खड़ी थी, और मुस्कुराती हुई कह रही थी...मुझे तो अपने बेटे को डीपीएस में ही पढ़ाना है, और ये काम आप ही करा सकते हैं।

मैं हतप्रभ था। पहली मुलाकात और इतना हक ! बिना सोचे ही मैंने कह दिया कि कोशिश करूंगा। और फिर एक दिन अप्पी के बेटे को डीपीएस में दाखिला मिल गया। अप्पी फिर मेरे घर आई थी, मिठाई का एक डिब्बा लेकर। साथ में शुक्रिया का एक शब्द होठों में दबाए हुए। और फिर वो तारीख थी और पांच दिन पहले तक की तारीख थी, अप्पी अपने पति के साथ हमारे पूरे परिवार के दिल में समा गई थी। उसका पति मेरा दोस्त था, अप्पी मेरी पत्नी की दोस्त थी और उसका बेटा मेरे बेटे का दोस्त था।

अप्पी इतने सालों में मुझसे वो दो सौ बार मिली होगी, कभी मेरे घर आ कर कभी मेरे उसके घर जाने पर..लेकिन वो बस मुस्कुराती थी और मुस्कुराती थी। जब कभी हम उसके घर लंच या डिनर के लिए गए, अप्पी यूं ही मुस्कुराती हुई मिलती थी, और चाहे मैं चार घंटे बैठा रहूं..बस वो चुपचाप अपने पति और मेरी बातों को मुस्कुराते हुए सुनती थी।

मुझे नहीं पता कि मेरी पत्नी से उसकी क्या बातें होती थीं, ये भी नहीं पता उसके बेटे और मेरे बेटे के बीच क्या बातें होती थीं। करीब आठ साल पहले जब वो हमारे मुहल्ले को छोड़ कर दूसरी जगह चली गई उसके बाद भी हम वैसे ही दोस्त रहे।

आज से ठीक पांच दिन पहले मैं दफ्तर पहुंचा ही था कि मेरी पत्नी का फोन आया। फोन पर थोड़ी झिझकी सी आवाज़ और थोड़ी घबराई आवाज़ में उसने मुझसे पूछा क्या तुम्हें कोई खबर मिली? मैं ने कहा, कैसी खबर? दिन भर खबरों के व्यापार में रहता हूं किस खबर की बात तुम कर रही हो। पत्नी रो नहीं रही थी, पर रुआंसी थी...उससे भी ज्यादा सन्न थी..उसने कहा शायद अप्पी ने आत्म हत्या कर ली है।

इसके बाद न तो मेरे पास कहने को कुछ था न सुनने को।

मैंने गाड़ी वापस मोड़ ली। घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचा तो जो सुना वो सुनाई नहीं पड़ रहा था। मेरी पत्नी कह रही थी, अप्पी ने आत्म हत्या कर ली है। मेरी हिम्मत टूट रही थी। अपने पड़ोसी के साथ कार में बैठ कर बिना कुछ कहे और सुने मैं चल पड़ा था अप्पी के घर।

वहां मुझे सबसे पहले मिला मेरे बेटे का दोस्त..जो अब भी बच्चा ही है। मैंने उससे पूछा क्या हुआ? अप्पी के बेटे ने कहा, “कुछ नहीं पता। बस मम्मी पंखे से लटक गई थी।” उसकी आंखों में आंसू नहीं थे। उन आंखों में आंसू की जगह नहीं बची थी। वो तो शून्य में विलीन हो चुकी आंखें थीं।

भीड़ में कोई फुसफुसा रहा था, पति पत्नी में कल झगड़ा हुआ था और अप्पी ने अपनी जान दे दी।

मैं भीड़ की इस फुसफुसाहट को सुनना नहीं चाह रहा था। आज मुझे अप्पी अच्छी नहीं लग रही थी। मेरे सामने ही वो लेटी हुई थी, सफेद कपड़े में लिपटी हुई। लेकिन मैं नहीं चाह रहा था कि वो मुझे देख कर मुस्कुराए। मैं नहीं चाहता था उससे मिलना।

मैं तो उस अप्पी को चाहता था जो अपने बेटे को स्कूल में दाखिला दिलाने की चाहत लेकर मेरे पास आई थी। मैं उस अप्पी को क्यों चाहूं जो अपने बेटे को यूं ही छोड़ कर भाग गई। जब वो पहली बार मेरे पास आई थी तब उसकी आंखों में बेटे के लिए सपना था। मैं उसके इसी सपने से प्यार करता था। आज वो कैसे अपने ही सपनों से अपनी आंखें मूंद सकती थी? जो अपने बेटे की जिंदगी बनाने के लिए बिना सोचे विचारे एक अनजान आदमी के घर जाकर मनुहार कर सकती थी..वो इतनी स्वार्थी कैसे हो गई?

उसने क्यों नहीं सोचा कि उसके मर जाने का मतलब सिर्फ उसका मर जाना भर नहीं। उसके बाद उसके बेटे उसके पति और उसके उन दोस्तों का क्या होगा..जिनके लिए उसकी मुस्कुराहट संजीवनी से कम नहीं थी।

शायद इसीलिए अप्पी मेरे पास कल रात आई थी। वो अपनी कहानी लिखवाना चाह रही थी..लेकिन क्यों? उसने अपने पति के माथे पर, अपने बेटे की आंखों में और अपने दोस्तों के दिल पर जो कहानी लिख छोड़ी है...क्या उसे ही पन्नों पर उतरवाना चाह रही थी।

नहीं अप्पी, मैं कभी उसे प्यार नहीं कर सकता जिसका अपना स्वार्थ इतना बड़ा हो कि उसे आगे सब कुछ दिखना बंद हो जाए। मैं आज 18 साल की तुम्हारी दोस्ती को अलविदा कहता हूं...और इस दंभ के साथ कहता हूं..कि मैं तुम्हें नापसंद करता हूं। सिर्फ नापसंद। और मैं जिसे नापसंद करता हूं उसकी कहानी क्यों लिखूं?

Friday 13 March, 2009

पीली आंखों वाली लड़की

वो लड़की कभी जी ही नहीं पाई। जब उसे पहली बार प्यार हुआ था तब भी नहीं। और अब जब उसके बेटे की शादी हो गई है तब भी नहीं।

जब उसे प्यार हुआ था तब पूरा घर उसका दुश्मन हो गया था। सबने कहा था ये गुनाह है। फिर भी छिप-छिप कर चंद दिनों तक तक वो अपनी चाहत से मिलती रही लेकिन घर वालों ने जल्दी में उसकी शादी कर दी। फिर किसी को पता ही नहीं चला कि कभी उसकी कोई चाहत भी रही थी।

28 साल पहले बीस साल की उम्र में अपने पति के पीछे पीछे वो उस शहर में चली गई थी जहां उसकी चाहत उसका पीछा नहीं कर सकती थी। मैं तब उससे मिला था। मैंने उसकी चमकती आंखों में झांका था। उसकी आंखों का रंग बदल गया था। मैंने देखा था उसकी आंखों का रंग पीला हो गया था।

फिर मैं उससे कई बार मिला। हर बार मैंने देखा उसकी आंखों का पीला रंग गहराता जा रहा था। उसके मुर्झाते लेकिन मुस्कुराते चेहरे को पढ़ने की कई बार मैंने कोशिश की, लेकिन कभी पढ़ नहीं पाया।
फिर मैंने पीली आंखों वाली लड़की के बारे में सोचना छोड़ दिया। मुझे लगता था कि वो अब इन पीली आंखों के साथ जी लेगी। वो एक अमीर पति की पत्नी बन गई थी और चमकती आंखों वाले दो बच्चों की मां बन गई थी।

उसने रात को रात नहीं समझा, दिन को दिन नहीं माना। उसने खुद के लिए कुछ नहीं किया, जो कुछ किया बस अपने पति, दो देवरों, तीन ननदों और दो बेटों के लिए किया। उसने उनमें से किसी आंखों को कभी पीला नहीं पड़ने दिया। इस क्रम में उसके 28 साल निकल गए।

बहुत सालों बाद एक बार फिर मैं उससे मिलने गया था। मैंने इस बार गौर से देखने की कोशिश की, लेकिन मैं चाह कर भी उससे नजरें नहीं मिला सका। मैं मन ही मन सोच रहा था, क्या ये जी रही है?

मेरे पास सिर्फ सवाल थे, जवाब नहीं थे। पीली आंखों वाली लड़की के पास सवाल और जवाब दोनों नहीं। बाकियों के लिए तो ये सवाल ही बेतुका था।

उसकी आंखों का पीलापन बढ़ता गया, और चेहरे की मुर्झाहट भी बढ़ती गई।

एकदिन वो बिस्तर पर गिर गई। तब घर के लोगों को लगा कि कुछ गड़बड़ है। डॉक्टर ने तुरंत उसका इलाज शुरु कर दिया।

कई दिनों से उसकी पीली आंखों का इलाज करने वाले डॉक्टर अब भी उसका इलाज कर रहे हैं। कहते हैं वो बच जाएगी। लेकिन कैसे ? बचने के लिए उसे शरीर का जो अंग चाहिए वो उसे कौन देगा ? वो भी नहीं देंगे जिनकी आंखों को पीला पड़ने से वो बचाती रही है पूरे 28 साल तक।

फिर भी मैं चाहता हूं कि वो थोड़ा और जी ले.. एक बार अपने लिए जी ले..बिना पीली आंखों के जी ले....ये जानते हुए भी कि तो वो कभी जी पाई और आगे जी पाएगी।

मैं ऐसा क्यों चाहता हूं?

...क्योंकि उसने जाने कितनी बार मुझे गले से लगाया है दोस्त बन कर , और सीने से लगाया है मां बन कर।