Friday 15 December, 2006

पत्नी और बेटा

अब जो आपको अपनी आपबीती सुनाने जा रहा हूं वो भी किसी के साथ हो सकता है, क्या पता हुआ भी हो। लेकिन मुझे बहुत हैरानी है कि भारत में ये सब क्यों और कैसे होता है और बर्दाश्त करना हमारी मजबूरी बन जाती है। दो साल पहले मैं अमेरिका में था। मेरी पत्नी और मेरे बेटे का कहना था कि यहीं बस जाना चाहिए। लेकिन तीन साल वहां रहने के बाद मुझे लगने लगा था कि भारत में रहना इतना बुरा नहीं है जितना हम सोचते हैं। शायद है भी नहीं। इसलिए मैंने पत्नी और बेटे को समझाया और मनाया कि अपने वतन वापस चलते हैं, और उन्हें मना कर दो साल पहले हमलोग लौट आए।
आपको पिछले दिनों इसी ब्लाग में मैंने अपनी कार दुर्घटना की कहानी सुनाई थी। सारा कुछ करने के बाद भी मैं कुछ नहीं कर पाया और एक पुलिस वाला अपनी मनमानी कर गया।
लेकिन अब जो हुआ है वो दुखद तो है ही, हास्यास्पद भी है।
पिछले दिनों मेरे पास बिजली विभाग की तरफ से पत्र आया कि मुझ पर करीब 34000 रुपए का बकाया है और मैंने अगर फौरन भुगतान नहीं किया तो बिजली काट दी जाएगी। मैं बहुत परेशान हुआ कि हमेशा नियमित बिल का भुगतान करता हूं तो ये बकाया कैसे आया। मैंने दिल्ली में यमुना पावर के दफ्तर में फोन किया तो मुझे बताया गया कि मैं दफ्तर जा कर उनसे संपर्क करूं। बहुत मुश्किल से दफ्तर से छुट्टी लेकर मैं उनके दफ्तर गया और लंबी लाइन से निकलने के बाद मेरी मुलाकात एक अफसर से हुई। अफसर ने कंप्यूटर में कुछ देखा और प्रिंट निकाल कर मेरे सामने रख दिया। उन्होंने बताया कि नया इलेक्ट्रानिक मीटर लगने से पहले का मीटर काम नहीं कर रहा था क्योंकि तीन साल तक मेरा बिल न्यूनतम आया है। तब ये सरकारी महकमा यानी दिल्ली बिजली बोर्ड था और उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। अब ये प्राइवेट कंपनी है और इस कंपनी ने ये पाया कि मेरा न्यूनतम बिल जो आ रहा था वो मीटर की खराबी के कारण था। उन्होंने साल भर पहले नया मीटर लगाया है और अब आज की बिजली खपत को आधार बना कर पिछले एक साल का बिल मुझ तक भेजा गया है, उन्होंने ये भी कहा कि मीटर तो तीन साल नहीं चला पर दो साल का मामला उन्होंने रफा दफा कर दिया है।
मैं इन तीन सालों में भारत में नहीं था। मेरे घर पर ताला बंद था और मैंने इसकी सूचना बिजली विभाग को दे भी दी थी कि घर में ताला बंद रहेगा। जाहिर है जब घर में कोई नहीं था तो बिजली की खपत भी नहीं होनी थी। ऐसे में जो न्यूनतम बिल था वही आएगा...और उसका भी लगातार भुगतान होता रहा। मैने उस अधिकारी को बताया कि घर बंद था इसलिए न्यूनतम बिल आया। ऐसे में आप आज कैसे पुराने आधार पर बिल भेज सकते हैं। अफसर इस बात पर थोड़ा चौंका। उसने पूछा कि क्या प्रमाण है कि मैं तब यहां नहीं था। मैने उसे बिजली विभाग को लिखी चिट्ठी की कापी दिखाई। थोड़ी देर बाद उसने कहा कि आप कल आईएगा। मैं बहुत परेशान हुआ कि कल फिर छुट्टी लेनी होगी। खैर अगले दिन मैं फिर गया। वो अफसर उस दिन छुट्टी पर था। मैंने किसी और अफसर से बात की तो फिर से वही कहानी दुहराई गई। मुझे दुबारा सारा कुछ विस्तार से बताना पड़ा। उसने सारी बात सुन कर कहा कि आपकी समस्या का समाधान यही है कि आप कल जिस अफसर से मिले थे उन्हीं से दुबारा मिलें। दिल्ली की सर्दी में माथे से पसीना पोछता हुआ मैं वापस आया। अब मैं कल फिर बिजली विभाग के दफ्तर में गया। वो अफसर वहां मिल गया। उसने मुझसे कहा कि पूरा मामला कलेक्शन एजंसी के पास है। लिहाजा मुझे भुगतान कर देना चाहिए ताकि बिजली ना कटे।
मन मसोस कर मैं बिजली विभाग के दफ्तर की सीढ़ियों से नीचे उतरा। कार में बैठा और सोचने लगा कि क्या मेरी पत्नी और बेटा सही कह रहे थे?

Wednesday 6 December, 2006

दो महिलाएं

पिछले दिनों दो महिलाओं से अलग-अलग तारीख में मिलना पड़ा। एक महिला मेरे दफ्तर के स्टूडियो में इंटरव्यू के सिलसिले में आई थी तो दूसरी का इंटरव्यू करने मुझे दिल्ली के ताज महल (मानसिंह रोड) होटल में जाना पड़ा। पहली महिला के इंटरव्यू का जो तय समय था वो उसी समय पर हमारे दफ्तर पहुंच गई तो दूसरी का इंटरव्यू करने मैं समय पर पहुंच गया। दोनों महिलाएं जानी मानी हस्ती हैं। दोनों की अपनी खूबियां हैं और दोनों ही बेहद खूबसूरत भी। एक की लंबाई दूसरे के मुकाबले कम थी तो रंग दूसरे से साफ था। दोनों की आंखों में चमक थी। दोनों के चेहरे पर आत्मविश्वास पूरा था। दोनों ही महिलाओं की मैंने कई फिल्में देख रखी थीं इसलिए दोनों से मुलाकात और बात में ज्यादा औपचारिकता नहीं रही। इनमें से पहली महिला का नाम उर्मिला मातोंडकर है जिसकी पहली फिल्म मैने देखी थी-मासूम। तब वो एक छोटी सी और प्यारी सी बच्ची थी। लेकिन मेरी मुलाकात उससे तब हुई जब वो भूत फिल्म में काम कर चुकी थी और इसके बाद भी कुछ फिल्में आ चुकी थीं। दूसरी महिला का नाम है मल्लिका शेरावत। मल्लिका की फिल्म मर्डर मैने कुछ साल पहले देखी थी, शायद अपने अमेरिका प्रवास में। तब अमेरिका में मेरा पूरा परिवार हिंदी की हर फिल्म वीडियो पर देखता था और इंडियन स्टोर में आसानी से पाइरेटेड वीडियो की कापी मिल जाती थी। उर्मिला की फिल्म भूत कहानी के हिसाब से चाहे जितनी लचर रही हो उनकी एक्टिंग लाजवाब थी। कहने की जरुरत नहीं कि इसके पहले प्यार तूने क्या किया में भी उर्मिला ने शानदार एक्टिंग की थी। उसी उर्मिला को सामने देख कर मुझे बहुत खुशी हुई। दूसरी तरफ पिछले हफ्ते जब मल्लिका से मिला तो कुछ ऐसा लगा कि 'गर्ल नेक्स्ट डोर' से मेरी मुलाकात हो रही है। उर्मिला से मुलाकात में लगा कि वो अब मासूम की ना तो बच्ची है और ना ही भूत से डरने वाली एक महिला। उर्मिला काफी संभली सी लगी और बातचीत में पूरी गंभीर बनी रही। इंटरव्यू के दौरान थोड़ी हंसी जरुर दिखी लेकिन चमकती आंखों में कुछ खामोशी सी भी दिखी। क्यों? मैं सोचता रहा। मल्लिका कुछ देर से इंटरव्यू के लिए आई थी। आने के बाद लगा कि थोड़ी गंभीरता उसने ओढ़ रखी है, लेकिन पांच मिनट के बाद ही मल्लिका पूरी तरह मल्लिका दिखने लगी। थोड़ी शोख, थोड़ी स्टाइलिश और अपने चेहरे और ड्रेस को लेकर पूरी तरह चौकस। उर्मिला का इंटरव्यू जब हो रहा था तब एक बार भी उन्होंने अपने मेकअप मैन को बीच में आने की अनुमति नहीं दी। लेकिन मल्लिका ने आधे घंटे के इंटरव्यू में हर चौथे मिनट मेकअप मैन को याद किया, आईना में चेहरा देखा। उर्मिला के चेहरे पर कहीं अकेलेपन की टीस थी (कह नहीं सकता कि ये मेरे देखने का नजरिया था या सच्चाई) तो मल्लिका के चेहरे पर सबके साथ होने की दमक। मैंने अपने मोबाइल फोन से दोनों की तस्वीर उनसे पूछ कर उतारी। बाद में तस्वीर भी मैंने कई बार देखी और सोचता रहा कि क्यों मल्लिका ऐसी लग रही थी कि वो बालीवुड के साथ कदम ताल कर रही है और उर्मिला एकदम अकेली है, इसका जवाब मुझे नहीं मिला। उर्मिला पहले से फिल्मों में हैं और उसे उन तमाम लोगों का साथ मिला है जो उसे बालीवुड में किसी मुकाम पर पहुंचा सकते थे। मल्लिका के साथ ऐसा नहीं रहा। मल्लिका ने खुद ही इंटरव्यू में माना कि ना तो उनके नाम के साथ मशहूर सरनेम जुड़ा था और ना ही फिल्मों में कोई उसका आका रहा। और तो और उसे अपना फिल्मी सफर शुरु करने से पहले नाम तक बदलना पड़ा। कोई बहुत ज्यादा फिल्में भी उसके खाते में नहीं दिखीं। मर्डर के अलावा जिस फिल्म की थोड़ी चर्चा की जा सकती है वो है प्यार के साइड इफेक्ट्स। फिर भी मल्लिका चंचल और खुशमिजाज दिखी और उर्मिला उदास। उर्मिला की उदासी मुझे इसलिए ज्यादा खली क्योंकि वो रंगीला की एक ऐसी लड़की थी जिसके अपने सपने थे और उन सपनों को साकार करने के लिए उसने एक ऐसा रास्ता चुना जिस पर चल कर वहां तक पहुंचना इतना आसान हकीकत में नहीं होता जितना फिल्म में था। तो क्या हकीकत में उर्मिला के साथ ऐसा ही हुआ? मर्डर से फिल्मों में छा जाने वाली मल्लिका का जीवन कैसा है नहीं पता, लेकिन जितना जाना उसके मुताबिक उसके मम्मी-पापा उसके फिल्मी करियर से खुश नहीं थे। फिर भी मल्लिका खुश दिखी। लगा जिंदगी में कई रंग हैं। दोनों लड़कियों से मिलने के बाद कई सवाल दिल में रह गए। दोनों आज के दौर की महिलाएं हैं। दोनों सफल हैं। दोनों एक ही विधा में हैं। फिर ये फर्क क्यों? दोनों ने मेरे दिल को छुआ। दोनों की अपने आप में अलग-अलग कहानी हैं। तो क्या दूसरों की कहानी को अभिनय में ढालने वाली इन महिलाओं की अपनी कहानी अनकही और अनसुनी है? क्या दोनों की कामयाबी के राह अलग-अलग हैं? ये सवाल दिल में लेकर मैं नींद से कई बार उठा हूं और सोचता हूं कि ये सफलता का दंश है या फिर दंभ। एक के चेहरे पर मुझे दंश और दूसरे के चेहरे पर दंभ क्यों दिखा?

प्रसंगवश

मेरी एक दोस्त ने एक शापिंग मॉल के बाहर अपनी कार पार्क की। कार पार्क करते ही पार्किंग वाला वहां आया। उसने पैसे मांगे तो मेरी दोस्त ने कहा कि वापसी पर पैसे दूंगी। पार्किंग वाले ने कहा कि नहीं अभी पैसे देने होंगे। इसपर मेरी दोस्त ने कहा कि पैसे ले कर आपलोग यहां से खिसक जाते हैं, और वापसी पर कोई कार की रखवाली करता नहीं मिलता। लेकिन पार्किंग वाला नहीं माना। मेरी दोस्त ने जिद में आकर कहा कि कार तो यहीं रहेगी जो चाहे कर लो। ये कह कर वो चली गई। करीब घंटे भर बाद जब वो वहां आई तो उसने देखा कि चारों पहियों की हवा निकली हुई है और दरवाजे के लॉक टूटे हुए हैं। उसने घबरा कर अपने पति को फोन किया। पति एक बड़े टीवी पत्रकार हैं और उन्होंने अपने संपर्क का इस्तेमाल करते हुए क्राइम रिपोर्टर से वहां के थानेदार को फोन करवा दिया। थानेदार आया और उसने शिकायत लिखी। शिकायत पर अमल करते हुए थानेदार ने पार्किंग ठेकेदार को थाने में बुलाया। ठेकेदार थाने में आते ही मेरी दोस्त के पैरों पर गिर पड़ा। उसने माफी मांगी और कहा कि वो उसकी बहन की तरह है, कृपया शिकायत वापस ले ले। इस पर मेरी दोस्त पिघल गई और थानेदार से उसने शिकायत वापस ले ली। बात खत्म हो गई। पार्किंग ठेकेदार आराम से चला गया। उसने मेरी दोस्त की कार का लॉक ठीक करवा दिया। चारों पहिए में हवा भरवा दी।

हमने थानेदार की तारीफ की, कि उसने अपना काम दुरुस्त किया। पार्किंग ठेकेदार के होश ठिकाने लगा दिए। मेरी दोस्त ने कहा कि ज्यादा कार्रवाई की जरुरत नहीं थी। जितना हुआ ठीक रहा। ऐसा होने से पार्किंग वाले ठीक रहेंगे। उनकी मनमानी और दादागीरी नहीं चलेगी।

पिछले हफ्ते गाजियाबाद के उस थानेदार का फोन मेरी दोस्त के पास आया। उसने कहा कि आपकी तो बड़ी सिफारिश है। मुझे बचा लीजिए। मेरी दोस्त ने पूछा कि ऐसा क्या हुआ। उसने बताया कि पार्किंग ठेकेदार उस दिन तो चला गया, लेकिन उसने मेरठ में डीआईजी से मेरी शिकायत की। कहा कि एक महिला के कहने पर थानेदार ने उसे थाने में बुलवाया और पांव पर गिरवाया। डीआईजी साहब बहुत नाराज हुए। उन्होंने थानेदार का ट्रांसफर मेरठ करवा दिया।

कहने की जरुरत नहीं कि जिस पार्किंग ठेकेदार को हम मामूली आदमी मान रहे थे, वो थानेदार पर भी कैसे भारी था। कितना पैसा पार्किंग के ठेके में लगा है और कितनी धांधली चल रही है ये भी बताने की जरुरत है क्या?

Tuesday 5 December, 2006

आप सभी की प्रतिक्रियाएं

आप लोगों की प्रतिक्रियाएं मिलीं। कई लोगों ने मुझे सलाह दी है कि मैं किसी क्राइम रिपोर्टर से संपर्क करूं। सवाल ये है कि क्या बिना सिफारिश के कोई काम नहीं हो सकता है? वैसे आप लोगों को बता दूं कि मैंने अपने कई रिपोर्टरों के अलावा दूसरे चैनल के साथी रिपोर्टरों से भी मदद मांगी। सवाल मेरे पैसे के नुकसान का तो था ही, मैं चाहता था कि एक टैक्सी चलाने वाले को सबक भी मिले ताकि इस देश में कुछ भी चलेगा की सोच ज्यादा न फले फूले। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। मेरे सभी रिपोर्टर मुझसे ये कहते हुए गए कि वो एसएचओ को सबक सिखा देंगे। और अंत में सभी यही कहते नजर आए कि वो कुछ नहीं कर पा रहे हैं। एक रिपोर्टर से तो एसएचओ(इंसपेक्टर) ने ये तक कहा कि वो टैक्सी वाला उसके काफी काम आता है और वो पूरी तरह उससे उपकृत हैं। ऐसे में वो कुछ नहीं कर सकते। हो सकता है कि एक एसएचओ एक टैक्सी वाले से इतना उपकृत हो कि वो उसके खिलाफ कार्रवाई ना कर पाए। मुझे ये भी अच्छा लगा कि वो किसी रिश्ते (टैक्सी वाला) के प्रति तो ईमानदार हैं लेकिन ये ईमानदारी उसके अपने काम के लिए भी होनी चाहिए थी। ऐसा ना होने पर उस पुलिस वाले को ये नहीं भूलना चाहिए था कि टैक्सी वाले ने हादसे के बाद जब मुझसे ये कहा था कि मैं चाहूं तो पुलिस बुला लूं- ये कहते हुए उसकी आंखों में दंभ और पुलिस वालों के उसके जेब में होने का गुरुर भी मैने देखा था। हो सकता है आपको ये लगे कि मैं एक छोटी सी शिकायत को इतना तूल क्यों दे रहा हूं। लेकिन मैं मानता हूं कि ये छोटी सी बात सभी को कहीं न कहीं आहत करती होगी। हर आदमी को ये बात तकलीफ देनी ही चाहिए कि कहीं कोई हमारी आपकी जिंदगी से यूं ही सुकुन ना चुरा ले जाए।

आपके साथ भी ऐसा हो सकता है

ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है और आप सिवाय मन मसोस कर चुप रह जाने के कुछ भी नहीं कर सकते। 14 नवंबर को दोपहर में मैं अपने एक साथी के साथ कार से दफ्तर जा रहा था। दिल्ली के आईटीओ पुल पर पीछे से एक इंडिका कार ने मेरी कार को जोरदार टक्कर मारी। मेरी होंडा सिटी कार काफी टूट फूट गई। मैने कार के ड्राइवर से अपनी कार के नुकसान की भरपाई करने को कहा। उसने कहा कि वो ड्राइवर है और उसने कार मालिक को फोन किया। थोड़ी देर में कार का मालिक वहां आया। उसने बताया कि उसका अपना टैक्सी स्टैंड है और जिस निजी कार से मेरी कार की टक्कर हुई थी वो भी टैक्सी में चल रही थी। टैक्सी मालिक ने कहा कि मैं चाहूं तो पुलिस को बुला लूं, लेकिन वो मेरे नुकसान की भरपाई नहीं करेगा। उसने ये भी कहा कि आपके कार के नुकसान की भरपाई में ज्यादा पैसे देने होंगे- पुलिस को पांच सौ देकर निपट जाउंगा। मैने उससे कहा कि अगर आपकी कार का इंश्योरेंस है तो वही दे दें, थर्ड पार्टी इंश्योरेंस में वो कवर हो जाएगा। लेकिन उसने बताया कि उसकी कार का कोई इंश्योरेंस भी नहीं है। मैने पुलिस को फोन किया। घंटे भर बाद एक किलोमीटर दूर शकरपुर थाना से हेड कांस्टेबल विजयेंद्र सिंह वहां पहुंचा। उसन पूरे हालात का जायजा लिया और मुझसे उसने कहा कि आप एक शिकायत लिखवा कर चले जाएं। मैने शिकायत लिखवा दी। अगले दिन जब मै शिकायत के बारे में जानने थाने गया तो पता चला कि मोटर व्हैकिल एक्ट 184 के तहत चालान काट कर उस कार को छोड़ दिया गया है। मैने हेड कांस्टेबल से पूछताछ की तो पता चला कि वो टैक्सी स्टैंड वही थाने के पास है और जिस कार से मेरी कार की टक्कर हुई थी वो थाने वालों को ही उपकृत करती थी। ऐसे में टैक्सी मालिक का ये दावा कि आप पुलिस बुला लें...मुझे जायज ही लगा। मैने एसएचओ से संपर्क किया और जानना चाहा कि एक निजी कार टैक्सी में चल रही है, और उसका इंश्योरेंस नहीं है आपने इसका मामला भी क्यों नहीं बनाया। इसपर एसएचओ साहब ने मुझसे कहा कि निजी कार टैक्सी में चल रही है आप कैसे साबित करेंगे। रही बात कार का इंश्योरेंस नहीं होने की तो आप इसके लिए कोर्ट जा सकते हैं- मुझे जितनी कार्रवाई करनी थी कर ली।

मैने पूरा वाकया दिल्ली के पुलिस कमिश्नर श्री केके पॉल को मेल पर लिखा। मेरी शिकायत विजिलेंस विभाग के एक सब इंस्पेक्टर को भेज दी गई। सब इंस्पेकटर ने मुझे बुलाया। मेरा बयान लिया। लेकिन मामला एसएचओ के खिलाफ था तो अब सवाल सामने आया कि एक सब इंस्पेक्टर अपने इंस्पेक्टर की जांच क्या करे।

हम और आप सीट बेल्ट बांधे बिना गाड़ी स्टार्ट कर लें तो गुनाह है। हम और आप एक लाल बत्ती पार कर जाएं तो गुनाह है। हम और आप मोबाइल हाथ में ले कर कार की स्टीयरिंग पर नजर आ जाएं तो महा गुनाह है।

लेकिन सरेआम हमको और आपको कोई मार जाए...हजारों रुपए का नुकसान कर जाए..तो भी उसका कोई कुछ इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि वो किसी पुलिस वाले को उपकृत करता है। उसके पास लाइसेंस ना हो, इंश्योरेंस ना हो कोई बात नहीं। और जब मैने ज्यादा जोर देकर एसएचओ से कहा कि मेरा काफी नुकसान हो गया है (करीब 30 हजार रुपए) तो उन्होंने कहा क्या मैं कार वाले को फांसी दे दूं।