Thursday 23 October, 2008

दो साड़ियां और एक कफन

बैंगलोर से आज फोन आया कि पुतुल की मां अस्पताल में हैं और डॉक्टरों ने उन्हें वेंटिलेटर पर रखा है। अमेरिका के न्यूजर्सी शहर से उनके बेटे के आने का इंतजार हो रहा है और आज शाम उसके आने के बाद वेंटिलेटर हटा दिया जाएगा, फिर वो लोग लाश को पटना ले जाएंगे।

पूरी बात सुनने के बाद मेरे पास कुछ कहने को नहीं बचा था। फोन करने वाले को पता था कि पुतुल की मां की मौत हो चुकी है, लेकिन अमेरिका से उनके बेटे को भारत आने में 18 से 20 घंटे लगेंगे। ऐसे में उन्हें मृत घोषित नहीं किया जा सकता है, और बेटे को मां के अंतिम दर्शन करने की मोहलत भी मिलनी चाहिए।

पुतुल की मां को मैं अपने जन्म के समय से जानता हूं, और आखिरी बार दो महीने पहले मिला था। वो बात-बात पर हंसती थीं और बात-बात पर रोती थीं। दो महीने पहले की मुलाकात में वो 28 साल पहले मर चुकी मेरी मां को याद कर फूट-फूट कर रोने लगी थीं और फिर उन्हें ये समझाना मुश्किल हो गया था कि वो जिस बात पर रो रही हैं वो बहुत पुरानी बात है...लेकिन उनकी याद जा चुकी थी और जो याद बची थी वो बिखरी हुई सी थी।

मेरे पिता और पुतुल के पिता एक ही सरकारी महकमें में काम करते थे और दोनों मेरे और पुतुल के पैदा होने से पहले से एक दूसरे के पड़ोसी थे। मेरी मां पुतुल की मां की दोस्त थीं, और मेरे पिता पुतुल के पिता के दोस्त थे।

सात भाई बहनों वाले उस परिवार में पुतुल मेरी दोस्त थी, शायद पहली दोस्त। वो मुझसे एक साल बड़ी थी लेकिन मैंने अपना पूरा बचपन पुतुल के सहारे ही गुजारा। गुड्डे गुड़ियों की शादी से लेकर कबड्डी खेलने और मारपीट करने तक। बाद में मेरी बहन से पुतुल की दोस्ती हो गई और उसके छोटे भाई से मेरी दोस्ती हो गई।

और तबसे हम लोगों की ये खानदानी दोस्ती चली आ रही है।

आज जब मुझे ये बताया जा चुका है कि पुतुल की मां नहीं रहीं..तो सचमुच मेरे पास कहने को कुछ नहीं सिवाय सोचने के...

मुझे नहीं पता कि पुतुल की मां का नाम क्या था? मैंने और मेरे भाई-बहनों ने हमेशा उन्हें चाची कह कर बुलाया और मां के बराबर माना। सच कहें तो बचपन में हमें ये पता ही नहीं था कि हमलोग पड़ोसी हैं। हमारा वो सरकारी घर एक-दूसरे के घर के बिल्कुल सामने खुलता था और हम यही सोचते थे कि पुतुल के पापा और मेरे पिताजी भाई हैं।
ये रिश्ता चलता रहा और जब मैं पांचवीं या छठी कक्षा में पहुचा तो पता चला कि हमलोग पड़ोस वाले दोस्त थे, क्योंकि इसी साल मेरे पिताजी का ट्रांसफर दूसरे शहर में हुआ था और हम अलग हुए थे। इसके बाद फिर कई मौके आए जब हम दुबारा पड़ोसी बने और हर बार रहे।

पुतुल की मां एक मां थीं। सिर्फ मां। एक ऐसी मां जिसने बच्चों की खुशी और त्याग के हजारों दिन के बीच बस यही चाहा था कि उसके बच्चे पढ़ें। खूब पढ़े। इतना पढ़ें कि घर में सिर्फ खुशियों का राज हो। मैंने उन्हें कभी नई साड़ी खरीदते नहीं देखा, मैंने उन्हें कभी बाहर खाना खाते नहीं देखा, मैंने उन्हें कभी फिल्म देखते नहीं देखा।

मैंने देखा था कि पांच बेटियों और दो बेटों को पढ़ाने के लिए उस छोटे से शहर से कैसे वो पटना चली आई थीं। तब हम पटना में थे और उन्होने दो कमरे का मकान किराए पर हमारे घर के बगल में ही ले लिया था। पुतुल के पापा का ट्रांसफर नहीं हो पाया था और फिर जिंदगी भर नहीं हुआ..लेकिन बच्चों को पढ़ाने के लिए एक मां 40 साल की उम्र में पति से सौ किलोमीटर दूर अलग दूसरे शहर में चली आई थीं।
मेरी मां की मौत 1980 में कैंसर से हुई थी, तब से लेकर कल तक जब कभी मुझे मां के चेहरे की याद आई वो दो आंखें ही याद आईं...जो पुतुल की मां की आंखें थीं।

समय बीतता गया। पुतुल का भाई, जो चौथी कक्षा में मेरा दोस्त बन गया था वो कॉलेज के बाद अमेरिका चला गया, और पिछले 14 सालों से अमेरिका में ही है। बाद में उसका दूसरा छोटा भाई भी अमेरिका चला गया। पुतुल के पापा का दो साल पहले कैंसर से निधन हो चुका था और तब से ये मां अकेली अपनी बेटी के साथ दिन गुजार रही थीं।
मैं दो महीने पहले बैंगलोर गया था। वो एक सूती गाउन में हिलती डुलती हड्डी के रुप में मुझसे मिली थीं। ना वो खा सकती थीं और ना सोच सकती थीं। बस एक शरीर थीं ऐसा शरीर जिसने त्याग के तप से खुद को मिटा दिया और ये त्याग था सात बच्चों की खुशी का।
किराए के मकान में जिंदगी गुजार देने वाली इस मां के बेटों ने मकान खरीदे....गाड़ियां खरीदीं। लेकिन मां उसका सुख भोग पाने के लायक नहीं रह गई थी। दो साड़ियों से ज्यादा की कभी उन्हें जरुरत नहीं रही और आज उसकी भी जरुरत नहीं रही।
आज मैं फिर वही सोच रहा हूं कि हम क्यों भाग रहे हैं? हम कहां भाग रहे हैं? क्या हम भी सिर्फ अपनी जिंदगी से वेंटिलेटर के हटने का इंतजार नहीं कर रहे......हमारी भी मंजिल तो वहीं है न !