Monday 9 April, 2007

वो लड़की

वो लड़की फिर नहीं मिली। कभी नहीं। आज कई महीनों, वर्षों के बाद सोचता हूं कि वो क्यों नहीं मिली तो तस्वीर कुछ साफ होती सी लगती है।

मैं आज भी सोच में पड़ जाता हूं कि ऐसा कैसे हो सकता है..कि वो मुझसे मिलना ही ना चाहे। ऐसा नहीं होना चाहिए था। जो लड़की मुझसे एक दिन भी बात नहीं करने पर तड़प उठती थी और जिसका फोन मैंने अगर एक बार भी नहीं उठाया तो एक हजार शिकायतें दर्ज हो जाती थीं वो भला मुझे कैसे छोड़ कर जा सकती है।

ऐसा कोई दिन नहीं गया जब सबसे पहले उसका फोन ना आया हो, ऐसी कोई घटना नहीं घटी जिसकी सबसे पहले उसको जानकारी ना मिली हो। और रही बात उसके बारे में जानने की..तो वो सचमुच खुली किताब थी..एक ऐसी किताब जिसमें ज्यादा अध्याय नहीं थे। बस स्कूल, कालेज जाना और उसी दौरान किसी के प्रेम में पड़ना..और फिर उससे अलग हो जाना। इतनी ही कहानी थी उसकी।

वो कितनी लंबी थी या कितनी छोटी, चलते हुए उसके चप्पलों से खट-खट की आवाज आती थी या नहीं, उसके बाल भूरे थे या काले, आंखें नीली थीं या नहीं..मेरे लिए इसके कोई मायने नहीं थे। तब मेरे लिए सिर्फ उसके होने के मायने थे और आज सिर्फ उसके नहीं होने के मायने हैं। लेकिन वो चली गई। यूं ही, और ऐसे ही जैसे कभी मेरी जिंदगी में आई थी।

थोड़े दंभ, थोड़ी बेफिक्री में ये सोच कर मैं चुप रहा कि वो जाएगी कहां? उसे तो आना ही होगा। वो मेरे बिना रह ही कहां सकती है? और इसी में महीने साल में बदलते गए..वो नहीं आई। कुछ दिनों तक मेरी बेफिक्री ने तो मुझसे यही कहा कि चली गई तो चली गई। मेरे पास किस चीज की कमी है, और यही सोचता-सोचता मैं और दूर होता गया। अपने व्यस्त जीवन में और व्यस्त हो गया। लेकिन कहीं न कहीं दिल में ये ख्याल आता रहा कि कल सुबह उसका फोन आएगा और फिर वो मेरे साथ होगी।

आखिर कहां चूक हो गई?

आज सोचने बैठा हूं तो कई सवाल दिल में शूल बन कर चुभ रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जिसके सबसे करीब होते हैं उसी को ठीक से समझ नहीं पाते। जाने-अनजाने उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं। कई बार उससे इतनी उम्मीद कर बैठते हैं, जितनी खुद से नहीं कर सकते।

छोटा था तो मेरे शहर की दीवारों पर किसी धार्मिक संस्था के कुछ संदेश लिखे होते थे- मुझे आज भी याद है एक संदेश-"दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार मत करो, जो तुम्हें खुद के लिए पसंद नहीं है।" हजारों बार पढ़े इस संदेश को शायद मैं अमल में नहीं ला पाया। और आज जब वो लड़की नहीं है तो रिश्तों की नई भाषा समझ आ रही है। हम सोचते हैं कि रिश्ते कभी छूटते नहीं। लेकिन ये गलत है। रिश्ता कोई भी हो, छूट सकता है, अगर हम उसे निभा नहीं सकते तो। उसे निभाने के लिए ईमानदारी पहली शर्त हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी नहीं।

सबसे बड़ी शर्त होती है रिश्तों को समझने की।