Saturday 24 October, 2009

वो गर्म हथेलियां...


परसों अमिताभ बच्चन से मुलाकात हुई। इससे पहले कई बार मिल चुका हूं। बहुत सी मुलाकातें याद नहीं हैं, लेकिन पहली मुलाकात याद है। 1980 में मां की मृत्यु के बाद लग रहा था कि जिंदगी बेमानी है, पढ़ाई-लिखाई का कोई मतलब नहीं, मौत ही जिंदगी का सबसे बड़ा सत्य है। और अपने इसी श्मशान वैराग्य भाव से मैंने बहुत से दिन यूं ही भ्रमण करते हुए गुजार दिए, और इसी सिलसिले में मेरा तब कश्मीर जाना हुआ।
एक दोपहर पहलगाम के पास कहीं लगी भीड़ को चीरता हुआ मैं भी तमाशा देखने पहुंच गया था, और तब मुझे पता चला कि वहां अमिताभ बच्चन की किसी फिल्म की शूटिंग हो रही है। मैं भीड़ में सबसे आगे खड़ा था, और वहां अमिताभ बच्चन परवीन बॉबी के साथ एक ही लाइन पर बार बार थिरक रहे थे। तब मुझे फिल्म का नाम पता नहीं था, लेकिन गाने के बोल थे...इसको क्या कहते हैं....एल--वी-ई।
जैसे ही फिल्म की शूटिंग रुकी बहुत से लोग अमिताभ अमिताभ चिल्लाते हुए आगे बढ़े। मैं भी भाग कर अमिताभ बच्चन के पास पहुंच गया। चारों ओर पुलिस का घेरा था लेकिन मेरे दिल पर पुलिस का कोई खौफ नहीं था। जब तक कोई रोकता, टोकता मैं अमिताभ के सामने था, और अपने फूलते दम के बीच मैंने अमिताभ की ओर अपनी नन्हीं हथेली बढ़ा दी। अमिताभ मेरी ओर देख कर मुस्कुराए और उन्होंने पूछा - पढ़ते हो? मैंने हां में सिर हिलाया और अमिताभ ने मेरी हथेली की ओर हाथ कर दिया। उनकी बहुत चौड़ी हथेली के बीच मेरी एकदम छोटी सी हथेली ऐसे समा गई थी, जैसे कभी मैं मां के सीने में समा जाया करता था। कुछ सेकेंड की ये मुलाकात वहीं खत्म हो गई।
मैं वापस घर चला आया था, और पढ़ाई में जुट गया था। रात में सोते हुए कानों में अमिताभ की आवाज़ गूंजा करती थी - पढ़ते हो?
तब हमारे शहर में बहुत से सिनेमा हॉल नहीं थे, और जो थे उसमें सारी फिल्में रिलीज होने के कई महीनों बाद लगती थीं। स्कूल की किताबों के बीच मेरी आंखें तलाशा करती थीं, अमिताभ बच्चन की फिल्में। मुझे लगता था कि अमिताभ बच्चन की जितनी फिल्में लगेंगी मैं देखूंगा। मेरे बाल मन में ये था कि शायद शूटिंग के वक्त अमिताभ बच्चन से हाथ मिलाने का वो सीन भी उसमें आ गया हो।
और ऐसे ही मैं अमिताभ बच्चन की त्रिशूल, मुकद्दर का सिकंदर और बहुत सी फिल्में देख गया। बिन मां का मैं, पिता संत- ऐसे में मुझे ना तो कोई रोकने वाला था और ना टोकने वाला। स्कूल और सिनेमा हॉल दोनों मेरी जिंदगी के सबसे अहम हिस्सा बन गए थे। सिनेमा हॉल के बाहर मेरी मां के सीने जितनी विशाल अमिताभ की हथेली मुझे पुकारती रहती थीं और यही वजह थी कि अमिताभ बच्चन के हाथों की वो गर्मी मैं कभी भूल ही नहीं पाया जिसे मैने पहलगाम की सर्द हवाओं के बीच महसूस किया था।
अपने उम्र के जिस पड़ाव पर मैं त्रिशूल देख रहा था उस पड़ाव पर मुझे फिल्मों की कहानी कुछ-कुछ सच लगा करती थी। अमिताभ बच्चन की मां फिल्म में मर रही थी, और मरते हुए उसे उसका सच बता रही थी कि तुम्हारा बाप आर के गुप्ता है.....और तभी हॉल में एक तल्ख सी आवाज़ गूंजी मिस्टर आर के गुप्ता मैं रहा हूं।
मरती हुई मां के हाथों को अपने हाथों में थामे..एकदम लाचार और बेबस अमिताभ को देख कर मुझे लगने लगा कि अमिताभ बच्चन की मां सचमुच मर गई हैं। मैं आ रहा हूं...ये चार शब्द मेरे कानों में जीने की चाहत की तरह गूंज रहे थे, और आर के गुप्ता को मिटा देने की तमन्ना मुझमें नई उर्जा भर रही थी – मेरी जेब में पांच फूटी कौड़ियां नहीं है, और मैं पांच लाख का सौदा करने आया हूं – ये वाक्य मुझे आगे बढ़ने को उकसा रहे थे।

जिंदगी भर सरकारी नौकरी में रहे मेरे पिता जो मां की मौत के बाद गुमसुम से हो गए थे, वे मेरे लिए देवता समान थे। लेकिन इस देवता समान पिता के बेटे ने अपना सहारा ढूंढ लिया था अमिताभ बच्चन में। उसके दिलो दिमाग में ये बात बैठ गई थी कि बिना पांच फूटी कौड़ियों के भी पांच लाख का सौदा हो सकता है, बस चाहिए वो आत्मविश्वास और वो जिद..जो अमिताभ की आंखों थीं।
और फिर मैंने देखी मुकद्दर का सिकंदर- फिल्म में अमिताभ को खान बाबा बता रहे थे, हंस सिकंदर-हंस...तकदीर तेरे कदमों में होगी..तू मुकद्दर का सिकंदर होगा...और इसी फिल्म में अमिताभ एक दिन अपनी बहन से कह रहे थे - मकान उंचा होने से इंसान उंचा नहीं हो जाता... ये सब सारी बातें किसी के लिए तालियों की गड़गड़ाहट के लिए लिखी गई होंगी लेकिन मेरे लिए अमिताभ के मुंह से निकली सारी बातें एक एक कर गुरुमंत्र बनती चली गईं।
फिर मैंने अमिताभ की एक-एक कर सारी फिल्में देखीं, और उसी में देखी कालिया, जिसकी शूटिंग मैने पहलगाम में देखी थी। लेकिन तब तक मैं फिल्मों और शूटिंग का सच समझ चुका था। लेकिन जो नहीं समझना चाहता था, वो ये कि अमिताभ मेरे लिए फिल्मी हीरो भर नहीं रह गए थे ..वो मेरे लिए कुछ ऐसे बन गए थे...जिनकी हथेलियों के बीच मेरी मां का सारा प्यार सिमटा हुआ था।
कहीं से पंद्रह रुपए में मैं अमिताभ बच्चन का एक पोस्टर खरीद लाया था, उसे फ्रेम करा कर मैने अपने घर के छोटे से ड्राइंग रूम में टांग दिया था। घर पर आने वाले पिताजी से पूछा करते थे कि आपने अमिताभ बच्चन की तस्वीर क्यों टांग रखी है, तो पिताजी मुस्कुरा कर कहते..बेटे की चाहत है।
वो तस्वीर मेरे घर पर टंगी रही जब तक मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। ग्रेजुएशन के बाद मैं दूसरे शहर गया आगे पढ़ने। और वो तस्वीर वहीं छूट गई। लेकिन मन में अमिताभ की तस्वीर टंगी रही, जस की तस।
फिर मैं जनसत्ता में नौकरी करने आ गया। और यहीं एक दोपहर मेरी मुलाकात अमिताभ बच्चन से एक समारोह में हो गई। तब तक अमिताभ बच्चन की फिल्में पिटने लगी थीं। जादूगर अजूबे जैसी फिल्में एक-एक टिकट को तरसती नजर आने लगी थीं। मैं अमिताभ से मिला। फिर मैने सहज भाव से उनकी हथेलियों के आगे अपनी हथेलियों को आगे कर दिया था...फिर उनकी चौड़ी हथेलियों के आगे मेरी नन्हीं हथेलियां थीं। और एक बार फिर कई साल पहले मर चुकी मेरी मां के सीने में मैं खुद को समाता हुआ महसूस कर रहा था।
फिर कई बार कई समारोहों में मेरी मुलाकात अमिताभ बच्चन से और हुई...कई बार बातें हुईं और धीरे धीरे अमिताभ मेरे लिए हीरो से बढ़ कर मां में बदलते चले गए।
अब समय आ गया कौन बनेगा करोड़पति का। मेरी पत्नी कौन बनेगा करोड़पति के शुरुआती शो में हिस्सा लेने पहुंच गई थी मुंबई और मैं भी था उसके साथ। अमिताभ बच्चन ने मेरी पत्नी से पूछा आपके साथ कौन आया है, तो मेरी पत्नी ने दर्शकों के बीच बैठे मेरी ओर इशारा किया। अमिताभ मुझे देख कर मुस्कुराए, और शो शुरु हो गया। एक सवाल के जवाब में मेरी पत्नी उलझ गई उसे लगा अमिताभ उसे गुमराह कर रहे हैं..लेकिन अमिताभ के चेहरे की मायूसी मुझे बता रही थी कि वो जो इशारा कर रहे हैं, उसे मेरी पत्नी समझे...लेकिन पत्नी नहीं मानी और कुछ रकम लेकर वो शो से बाहर हो गई...जैसे ही शो खत्म हुआ अमिताभ अपनी कुर्सी से उतर कर आए और मेरी पत्नी की ओर देख कर अफसोस जताया, और कहा कि आप और जीत सकती थीं, कम जीत कर जा रही हैं।
जो हुआ सो हुआ। मेरी पत्नी को पैसे का कोई क्रेज नहीं था। वो अमिताभ बच्चन से बात करके, उनसे मिलकर खुश हो रही थी। फिर हमने अमिताभ बच्चन के साथ कुछ लम्हे गुजारे, खाना खाया और मैं उन बड़ी-बड़ी हथेलियों को अपनी नन्हीं सी हथेलियों में समेट कर वापस आ गया।
अमिताभ बच्चन से फिर मुलाकातें हुईं। लेकिन परसो जो मुलाकात हुई तो मुझे उनके साथ पहलगाम में हुई वो मुलाकात ज्यादा याद आई। मैं गुड़गांव के लीला होटल में अमिताभ बच्चन से मिलने गया था। मेरे मन में इच्छा थी कि इस मुलाकात में मैं उनके पांव छू लूंगा, और पक्के तौर पर यही सोच कर गया था। लेकिन वहां पहुंचते ही मेरी हथेलियां मचल उठीं, मां के सीने से लगने को। मैंने कोई कोशिश नहीं की और मेरी हथेलियां उनकी हथेलियों में समा गईं। तब मेरे पास न तो कहने को कुछ था और न सुनने को।
अमिताभ बच्चन मेरी ओर देख कर मुस्कुरा रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि प्रोफेशनल हैसियत से मैं उन्हें मिस्टर बच्चन कहूं या अपने ड्राइंग रूम में टंगी तस्वीर को याद करके अमिताभ बच्चन पुकारूं या फिर गर्म गर्म हथेलियों के बीच सिमटी अपनी हथेलियों को यूं ही उनमें समेटे हुआ मां कह कर उसी में समा जाऊं!
घर आया तो बेटे ने कैमरे में तस्वीरें देखीं। मैंन सुबह ही उसे बताया था कि अमिताभ बचच्न से मिलने जा रहा हूं। उसने पूछा अमिताभ बच्चन से क्या बातें की? मैं चुप रहा। फिर पत्नी ने पूछा अमिताभ बच्चन को तुमने मेरा हैलो कहा या नहीं?
मैं चुप था। मेरी पत्नी और बेटे को लगता रहा कि मैंने अपना समय बर्बाद कर दिया, और अमिताभ से मिल कर भी मैं कोई बात नहीं सका। अब मैं उनसे क्या कहूं? कैसे बताऊं कि अमिताभ बच्चन की हथेलियों में जब मेरे हाथ समा जाते हैं तो मैं कुछ कहने और सुनने की हालत में नहीं होता।
बचपन में अपनी मां को खो देने वाला मैं अगर कभी मां को सामने पा लूंगा तो क्या उससे बातें करुंगा? मैं तो उसके सीने में समा जाऊंगा....

Friday 9 October, 2009

मैं क्यों लिखूं?

कल रात अप्पी आई थी। वैसे ही मुस्कुराते हुए, चमकीली आंखों के साथ पांच फीट तीन इंच की अप्पी कह रही थी इतना लिखते हो, मुझ पर कुछ लिखो न!

मेरी नींद खुल गई। काफी देर तक फिर अप्पी मेरे सामने खड़ी रही। बहुत यकीन करने पर ही यकीन हुआ कि वो सचमुच नहीं आई थी, वो सपने में आई थी। लेकिन वो क्यों आई? मैं तो उसे 18 साल से जानता हूं, तब से जब वो तीस साल की थी, और इन 18 सालों में जब वो कभी ऐसै मेरे पास नहीं आई तो आज क्यों आई? वो क्यों चाहती है कि मैं उस पर कुछ लिखूं।

एकदम झक गोरी अप्पी से मेरी मुलाकात कभी होनी ही नहीं थी। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? ठीक मेरे घर के सामने वाले घर में रह रही अप्पी अपने पति के साथ एकदिन अचानक हमारे घर आ गई। तब मेरे बेटे का दाखिला दिल्ली पब्लिक स्कूल की नर्सरी कक्षा में हुआ था, और उसके बेटे को भी दिल्ली पब्लिक स्कूल की नर्सरी कक्षा में दाखिला चाहिए था। पता नहीं किसने उससे कह दिया कि शायद मेरी जानपहचान है, और मैं उसके बेटे का दाखिला करा सकता हूं। वो अपने पति के साथ बिल्कुल मेरे सामने खड़ी थी, और मुस्कुराती हुई कह रही थी...मुझे तो अपने बेटे को डीपीएस में ही पढ़ाना है, और ये काम आप ही करा सकते हैं।

मैं हतप्रभ था। पहली मुलाकात और इतना हक ! बिना सोचे ही मैंने कह दिया कि कोशिश करूंगा। और फिर एक दिन अप्पी के बेटे को डीपीएस में दाखिला मिल गया। अप्पी फिर मेरे घर आई थी, मिठाई का एक डिब्बा लेकर। साथ में शुक्रिया का एक शब्द होठों में दबाए हुए। और फिर वो तारीख थी और पांच दिन पहले तक की तारीख थी, अप्पी अपने पति के साथ हमारे पूरे परिवार के दिल में समा गई थी। उसका पति मेरा दोस्त था, अप्पी मेरी पत्नी की दोस्त थी और उसका बेटा मेरे बेटे का दोस्त था।

अप्पी इतने सालों में मुझसे वो दो सौ बार मिली होगी, कभी मेरे घर आ कर कभी मेरे उसके घर जाने पर..लेकिन वो बस मुस्कुराती थी और मुस्कुराती थी। जब कभी हम उसके घर लंच या डिनर के लिए गए, अप्पी यूं ही मुस्कुराती हुई मिलती थी, और चाहे मैं चार घंटे बैठा रहूं..बस वो चुपचाप अपने पति और मेरी बातों को मुस्कुराते हुए सुनती थी।

मुझे नहीं पता कि मेरी पत्नी से उसकी क्या बातें होती थीं, ये भी नहीं पता उसके बेटे और मेरे बेटे के बीच क्या बातें होती थीं। करीब आठ साल पहले जब वो हमारे मुहल्ले को छोड़ कर दूसरी जगह चली गई उसके बाद भी हम वैसे ही दोस्त रहे।

आज से ठीक पांच दिन पहले मैं दफ्तर पहुंचा ही था कि मेरी पत्नी का फोन आया। फोन पर थोड़ी झिझकी सी आवाज़ और थोड़ी घबराई आवाज़ में उसने मुझसे पूछा क्या तुम्हें कोई खबर मिली? मैं ने कहा, कैसी खबर? दिन भर खबरों के व्यापार में रहता हूं किस खबर की बात तुम कर रही हो। पत्नी रो नहीं रही थी, पर रुआंसी थी...उससे भी ज्यादा सन्न थी..उसने कहा शायद अप्पी ने आत्म हत्या कर ली है।

इसके बाद न तो मेरे पास कहने को कुछ था न सुनने को।

मैंने गाड़ी वापस मोड़ ली। घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचा तो जो सुना वो सुनाई नहीं पड़ रहा था। मेरी पत्नी कह रही थी, अप्पी ने आत्म हत्या कर ली है। मेरी हिम्मत टूट रही थी। अपने पड़ोसी के साथ कार में बैठ कर बिना कुछ कहे और सुने मैं चल पड़ा था अप्पी के घर।

वहां मुझे सबसे पहले मिला मेरे बेटे का दोस्त..जो अब भी बच्चा ही है। मैंने उससे पूछा क्या हुआ? अप्पी के बेटे ने कहा, “कुछ नहीं पता। बस मम्मी पंखे से लटक गई थी।” उसकी आंखों में आंसू नहीं थे। उन आंखों में आंसू की जगह नहीं बची थी। वो तो शून्य में विलीन हो चुकी आंखें थीं।

भीड़ में कोई फुसफुसा रहा था, पति पत्नी में कल झगड़ा हुआ था और अप्पी ने अपनी जान दे दी।

मैं भीड़ की इस फुसफुसाहट को सुनना नहीं चाह रहा था। आज मुझे अप्पी अच्छी नहीं लग रही थी। मेरे सामने ही वो लेटी हुई थी, सफेद कपड़े में लिपटी हुई। लेकिन मैं नहीं चाह रहा था कि वो मुझे देख कर मुस्कुराए। मैं नहीं चाहता था उससे मिलना।

मैं तो उस अप्पी को चाहता था जो अपने बेटे को स्कूल में दाखिला दिलाने की चाहत लेकर मेरे पास आई थी। मैं उस अप्पी को क्यों चाहूं जो अपने बेटे को यूं ही छोड़ कर भाग गई। जब वो पहली बार मेरे पास आई थी तब उसकी आंखों में बेटे के लिए सपना था। मैं उसके इसी सपने से प्यार करता था। आज वो कैसे अपने ही सपनों से अपनी आंखें मूंद सकती थी? जो अपने बेटे की जिंदगी बनाने के लिए बिना सोचे विचारे एक अनजान आदमी के घर जाकर मनुहार कर सकती थी..वो इतनी स्वार्थी कैसे हो गई?

उसने क्यों नहीं सोचा कि उसके मर जाने का मतलब सिर्फ उसका मर जाना भर नहीं। उसके बाद उसके बेटे उसके पति और उसके उन दोस्तों का क्या होगा..जिनके लिए उसकी मुस्कुराहट संजीवनी से कम नहीं थी।

शायद इसीलिए अप्पी मेरे पास कल रात आई थी। वो अपनी कहानी लिखवाना चाह रही थी..लेकिन क्यों? उसने अपने पति के माथे पर, अपने बेटे की आंखों में और अपने दोस्तों के दिल पर जो कहानी लिख छोड़ी है...क्या उसे ही पन्नों पर उतरवाना चाह रही थी।

नहीं अप्पी, मैं कभी उसे प्यार नहीं कर सकता जिसका अपना स्वार्थ इतना बड़ा हो कि उसे आगे सब कुछ दिखना बंद हो जाए। मैं आज 18 साल की तुम्हारी दोस्ती को अलविदा कहता हूं...और इस दंभ के साथ कहता हूं..कि मैं तुम्हें नापसंद करता हूं। सिर्फ नापसंद। और मैं जिसे नापसंद करता हूं उसकी कहानी क्यों लिखूं?