Wednesday 28 March, 2007

फिर कुछ कहना है

आज फिर कहने को कुछ है, इसलिए लंबे समय के बाद कुछ लिखने बैठा हूं। पिछले दिनों कई लोगों से मुलाकात हुई, कई लोगों से बात हुई। हर आदमी अपने आप में असंतुष्ट दिखा और थोड़ा दुखी भी। आखिर क्यों? कई दिनों तक चुपचाप सोचता रहा। आखिर आदमी खुश क्यों नहीं है। जिसे जो चाहिए था उसे पा कर भी वो खुश नहीं है। जिसे चाहिए था उसे नहीं मिला जाहिर है, वो भी दुखी है। दिल ने खुद से बहुत सवाल किए। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम खुश होना ही नहीं चाहते, या फिर हम दुखी रहने के अभ्यस्त हो चले हैं। मैं कई जगहों पर गया। देश में भी और विदेश में भी। इंग्लैंड से लेकर अमेरिका तक और दिल्ली से लेकर मुंबई तक। दुख ने किसी का पीछा नहीं छोड़ा है। मैं बहुत बार सोचता हूं कि ऐसा क्यों है?
मेरी मां 1980 में कैंसर नामक बीमारी से मरी थी। मेरे पिताजी की जितनी हैसियत थी, उनका भरपूर इलाज कराते रहे और डाक्टर के ये बताने के बाद भी कि वो नहीं बच सकतीं। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और सबकुछ वैसे ही करते रहे जैसे उन्हें करना चाहिए था। मां को नहीं बचना था, और वो बची भी नहीं। लेकिन अपनी बीमारी के कुल एक साल की अवधि में वो जिस तरह रही वो एक शान की जिंदगी थी। आखिर जिस दिन उसकी मौत हुई उसके पहले वाली रात वो मुझे बैठा कर बहुत दुलार करती रही और उसने मुझसे कहा कि अब मैं तुम्हारा साथ नहीं दे पाउंगी। मैं एक छोटा बच्चा था। इतना छोटा कि ठीक से उनके नहीं होने का मतलब नहीं समझ पा रहा था और ना ही ये समझ पा रहा था कि आखिर वो मेरा साथ क्यों नहीं दे पाएगी, या उसने मेरा साथ कैसे दिया है। मैं बस इतना जानता था कि वो बहुत बीमार है, इतनी बीमार कि उसका वजन 60 किलो से कुल 15 किलो रह गया था और वो मुझे हमेशा कपड़े में लिपटी हुई हड्डियों का ढांचा भर नजर आती थी। फिर भी मां कह रही थी और मैं सुन रहा था। लेकिन मां ने दो बातें ऐसी कही थीं, जो आज मुझे बहुत प्रासंगिक लगती हैं। एक-मां ने कहा था कि जिस चीज को दिल में नहीं रख सकते उसे मुट्ठी में पकड़ने से कोई फायदा नहीं, और दूसरे हमेशा खुश रहना।
मां ने ये क्यों कहा था तब ये मेरी समझ में नहीं आया था। लेकिन आज जब इतने दिनों बाद आप तक लौट कर आया हूं तो उस सवाल को कुरेदता हुआ ही आया हूं।
मैं पिछले महीने वाशिंगटन डीसी से न्यूयार्क ट्रेन से गया। ट्रेन में मुझे एक गुजराती सज्जन मिले। बातचीत में उन्होंने बताया कि वे योगी हैं। और इसी ट्रेन से कैनेडा जा रहे हैं। रास्ते में ही उन्होंने मुझे ये भी बताया कि उनके भीतर आध्यात्मिक शक्ति है और वे कैनेडा में इसी विद्या से लोगों का इलाज करते हैं। मैंने पूछा कि आपने भारत क्यों छोड़ दिया तो उन्होंने सीधे और साफ शब्दों में कहा कि भारत में उनकी विद्या का कोई कद्रदान ही नहीं था। मुझे हैरानी हुई कि ऐसा कैसे हो सकता है। खैर मैं उन्हें कुरेदता रहा और वो बताते रहे। साढ़े तीन घंटे के सफर में उन्होंने बहुत कुछ बताया लेकिन आखिर में उन्होंने मुझसे कहा कि कैनेडा में वे रह जरुर रहे हैं, लेकिन उनका मकसद अमेरिका में बसना है और यहां बसने के लिए वे कई चक्कर लगा चुके हैं। उन्हें ग्रीन कार्ड की तलाश थी जो उन्हें नहीं मिल पा रहा था और कैनेडा का उनका वीजा बस खत्म ही होने वाला था। वे दुखी थे। उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी और एक बिंदु पर तो उन्होंने अपनी बेबसी को इस हद तक उजागर कर दिया कि इस दुनिया में अच्छे आदमी को लोग समझ ही नहीं पाते, ना ही उनकी कोई कद्र होती है।
एक योगी जो मेरी समझ में सुख-दुख के मायने मुझसे कहीं बेहतर जानता और समझता होगा वो दुखी दिखा तो मुझे अफसोस हुआ।
प्रसंगवश दूसरी एक और घटना की चर्चा करना चाहूंगा- मेरे एक मित्र को भारत में कोई नौकरी नहीं मिली तो वो अमेरिका के ही न्यूजर्सी शहर में किसी तरह बस गया। कैसे बसा ये कभी विस्तार से बताउंगा। लेकिन अभी अपनी इस बार की यात्रा में मैं उससे मिला। मेरा मित्र मुझे कुछ आहत और दुखी दिखा। मैंने उससे पूछा-तुम खुश तो हो न! इसके बाद उसकी आंखें छलछला आईं, उसने यही कहा कि खुशी किसे कहते हैं नहीं पता। धन है....बस धन है। भारत जाता हूं तो लोगों के लिए गिफ्ट ले जाता हूं। लोग मुझे हाथो हाथ लेते हैं। सभी मुझे घर पर बुलाते हैं। मैं लोगों के लिए सफलता की मिसाल हूं। लोगों के सामने खुश हूं। लेकिन आज तुमने ऐसा सवाल पूछ दिया है कि क्या मैं खुश हूं?
फिर उसने बताया कि वो बस पैसा कमाने की मशीन भर बन गया है। उसे हाई ब्लडप्रेशर और शुगर की बीमारी हो गई है और वो कभी अपनी जिंदगी जी ही नहीं पाया। खुशी की तलाश में वो बस भटक रहा है। कौन सी खुशी ये उसे भी नहीं पता।
मां ने कहा था जिस चीज को दिल में नहीं रख सकते उसे मुट्ठी में पकड़ने का कोई फायदा नहीं, और हमेशा खुश रहना।
मेरा दोस्त और मुझे जो योगी मिला था दोनों दिल से खुशी को नहीं पकड़ पाए थे। दोनों खुशी को मुट्ठी में पकड़े घूम रहे हैं और दोनों ही खुश नहीं हैं। इतने दिनों बाद समझ में आया कि मरती हुई मां ने दो वाक्यों को एक साथ क्यों कहा था। मैंने उदाहरण में दो घटनाएं आपको सुनाई, लेकिन हकीकत में जितने लोगों से मिला सभी दुखी दिखे..और वजह यही कि हम खुशी को दिल में नहीं रखते जाहिर है कि उसे मुट्ठी में रखने की कोशिश करते हैं और तलाश भी वहीं से करते हैं। जिस दिन दिल में रखने लगेंगे..और दिल में तलाशने लगेंगे हमारी जिंदगी के मायने बदल जाएंगे। ठीक वैसे ही जैसे मेरी मरती हुई मां मरने के एक दिन पहले भी जिंदगी से पूरी संतुष्ट और पूरी खुश दिख रही थी। ठीक वैसे ही जैसे मेरे पिताजी अपनी पत्नी के इलाज में अपनी जिंदगी भर की कमाई को खर्च करके बाकी के जीवन खुश रहे।
चालीस साल की उम्र में अपने जीवन साथी को गंवा देने वाले पिताजी बाकी की जिंदगी उनकी उन्हीं यादों के सहारे काटते चले गए, लेकिन वे जब तक रहे , खुश रहे। दिल की खुशियों को उन्होंने मुट्ठी मे भर-भर कर लुटाया। कई सालों बाद मैंने उनसे एक दिन पूछा था कि आपको क्या कभी कोई दुख नहीं होता..तो वे हिंदी फिल्म का एक गाना गुनगुनाने लगे "मुझे गम भी उनका अज़ीज है कि ये उन्हीं की दी हुई चीज है।"

(मां की मौत 29 मार्च की सुबह हुई थी और 27 साल पहले आज की रात ही वो रात थी जब मां ने मुझसे ये बात कही थी)

9 comments:

Anonymous said...

संजय जी,

एक दिल छू लेने वाला संस्मरण !

Anonymous said...

sanjay ji

aapne ek baar mujhe phir se sochane par vivas kar diya hain..

ashish.maharishi@gmail.com
ashishmaharishi.blogspot.com

Sagar Chand Nahar said...

आप बड़े दिनों के बाद आये पर आते ही आखें नम कर दी। माँजी बिल्कुल सही कहा करते थे,
जिस चीज तो दिल में नहीं रख सकते उसे मुट्ठी में पकड़ने का कोई फायदा नहीं, और हमेशा खुश रहना।

माँजी को उनकी पुण्य तिथी पर हार्दिक श्रद्धान्जली अर्पित करता हूँ।
nahar.wordpress.com

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छी सी बात बहुत अच्छे तरीके से बताई।
घुघूती बासूती

Anonymous said...

दिल में उतर जाने वाला संस्मरण....

पुरानी बातें इस तरह याद आती हैं-तो दिल थोड़ा भावुक हो जाता है और शायद दुखी भी...

लेकिन,आपका मकसद तो खुशियों की सौगात देने का है... बहरहाल, फिर कहना चाहूंगा-संस्मरण बेहद खूबसूरती से लिखा है।
-पीयूष

Unknown said...

खुशी एक व्यक्तिगत फैसला है। हर गुजरते पल के साथ आगे बढ़ने की आशा होती है। इस आशा को वास्तविकता का धरातल विरले ही मिलता है। और मनुष्य फिर दुखी हो जाता है।
एक कविता जो याद आ गई....


जीवन

काश जीवन एक रेखा होती
एक बिन्दू से दूसरे बिन्दू तक
एक निश्चित दिशा होती
हर कदम कुछ आगे बड़ते
कुछ दूरी हर दिन तय होती

पर हर पल यहाँ...
एक नयी दिशा....
गोल घूमती दुनिया...
प्रदक्षिना...
और परीक्रमा...

लट्टू की तरह....
अपनी दुरी में घूम...
आगे कभी पीछे...
गोल कक्षा में झूम..
सुन्न...... सुस्त...स्तब्ध....


गती..
संगती....
स्नेह ...समृद्घी...
एक भ्रम....


मौसम…
पहर….
बनते....बिगड़ते....
गाम...शहर...
एक क्रम....


कहाँ.....???
..आदित्य.....
..चैतन्य.....
.....परम.....????



माँ की याद में माँ आज भी है...।

उन्मुक्त said...

मुझे आपनी मां की याद आयी। उनकी खास बात थी कि वे छोटी छोटी सी बात के लिये उत्साहित रहती थीं, उसी में खुशी ढ़ूढ़ती थीं। अकसर कहती थीं कि लोग बड़ी बात से खुशी के इंतजार में जिंदगी बिता देते हैं खुशी तो हर छोटी छोटी बातों में है।

ePandit said...

जीवन के सत्य को समेटे दिल को छू लेने वाला संस्मरण।

कुछ ऐसी ही घटना एक बार मेरे साथ भी हुई। हरिद्वार से सहारनपुर आते हुए बस में एक इस्कॉन का संन्यासी मिला। बातें शुरु हुई श्रीकृष्ण, श्रील प्रभुपाद, इस्कॉन से लेकर धर्म-अध्यात्म तक। मुझे वह पहुँचा हुआ साधक लगा।

उसने बताया कि वह एक गायक है और कैसेट आदि भी निकालता है। उसने मुझे एक घटना भी बतायी कि कोई व्यक्ति भक्त बनकर उससे हजारों रुपए ठग ले गया। अब मुझे हैरानी हुई कि इतना ज्ञानी व्यक्ति भी पैसों के फेर में दुखी हो सकता है।

अतः आपकी खुशी संबंधी बाते अक्षरशः सच हैं।

debashish said...

आपने तो रुला ही दिया।