Saturday, 31 March 2007

वो 27 साल

ब्लाग के तमाम मित्रों ने जो जवाब मुझे भेजे उसके बाद मैं बाध्य हो गया कुछ और कहने के लिए। मैं सभी को अलग से जवाब नहीं दे पा रहा हूं, लेकिन जिन लोगों ने मेंरे ब्लाग को पढ़ा और अपनी प्रतिक्रिया दी है उनके लिए मैं दिल से आभारी हूं। कई लोगों ने इतना भावुक हो कर लिखा है कि मेरे पास कहने को कुछ रह ही नही गया। ब्लाग के कुछ मित्रों के नाम मैं जरुर लेना चाहूंगा जिन्होंने मेरी उन यादों को ताजा कर दिया है जिन्हें भूलने के लिए मैं पिछले 27 साल से लगातार कोशिश कर रहा हूं।
आशीष और सागर चंद नाहर ने तो दिल को छू लिया है। संयुक्त अरब अमीरात से बेजी ने एक सुंदर कविता के माध्यम से मुझे जिंदगी को थाम लेने का संदेश दिया है। पियूष ने लिखा है कि आपका मकसद खुशियों की सौगात देना है..
मुझे नहीं पता कि मेरा मकसद क्या है। लेकिन आपके पत्र ने मुझे बाध्य किया है 27 साल पीछे जाने के लिए..

***
ट्रेन धड़धड़ाती हुई चली जा रही थी। मेरी मां बहुत बीमार थी हमारे उस छोटे से शहर के डॉक्टर ने कहा था कि किसी बड़े अस्पताल में फौरन दिखाइए। उस छोटे से शहर में कोई बड़ा अस्पातल था ही नहीं, लिहाजा पिताजी ने तुरंत तय किया कि हम कानपुर चलेंगे, वहां हमारे रिश्तेदार भी हैं और बड़ा अस्पताल भी। पिताजी, मां और मैं, तीनों लोग ट्रेन से चल पड़े कानपुर की ओर। पिताजी ने सेकेंड क्लास का टिकट तो ले लिया था लेकिन रिजर्वेशन नहीं मिला था। रिजर्वेशन नहीं था इसलिए बर्थ भी नहीं मिली। हमलोग टायलेट के पास किसी तरह बैठ गए थे। मां लोहे के बक्से पर बैठी थी। उसके पेट में कोई तकलीफ थी ऐसे में टायलेट के पास बैठना उसके लिए सुखद ही था। वो तकरीबन हर दस मिनट पर टायलेट जा रही थी। करीब दो घंटे के बाद काले कोट में टीटीई वहां आया। उसने पिताजी से टिकट के बारे में पूछा, पिताजी ने टिकट दिखाया। टीटीई ने पूछा कि रिजर्वेशन नहीं है? पिताजी ने कहा जल्दी में जाना है रिजर्वेशन ले नहीं पाया। आप चाहें तो दे दें। टीटीई ने पिताजी के कहा बर्थ तो मिल जाएगी लेकिन आपको तीस रुपए उपर से देने होंगे। पिताजी को ये बात नागवार गुजरी। उन्होंने उससे कहा कि बर्थ के लिए उपर से पैसे देना जायज नहीं होगा। टीटीई एकदम उबल पड़ा। मुझे अच्छी तरह याद है कि उसने ये कहा था कि पैसे नहीं दोगे तो मरो यहीं पर, और चलते हुए मां को जानबूझ कर जूते से रगड़ता हुआ गया था।
मैं छोटा था। बुरा तो लगा,लेकिन दिल ने यही कहा कि उसने जानबूझ कर नहीं किया होगा। आज लगता है कि पिताजी भी तिलमिलाए थे लेकिन उस वक्त उन्होंने टीटीई को कुछ कहा नहीं था। सारी रात हमलोग कुछ खा नहीं पाए थे। मुझे भूख लग रही थी, लेकिन ऐसा लग रहा था मां की तबियत ट्रेन में ही बिगड़ने लगी है और इतनी ज्यादा कि एक बार पिताजी को लगा कि इलाहाबाद में ही उतर जाएं। लेकिन मां ने हिम्मत बंधाई और हम सुबह किसी तरह कानपुर पहुंच गए। उसी दिन कानपुर के हैलट हास्पिटल में मां को ले जाया गया दोपहर तक डाक्टर ने आशंका जता दी कि उन्हें कैंसर है।

कैंसर है ये जानने के बाद पिताजी और मां पर क्या गुजरी होगी मैं आज भी इसका अंदाजा नहीं लगा पा रहा हूं। लेकिन मेरी जितनी उम्र थी उसमें मेरी समझ में इतना आ रहा था कि कुछ गंभीर बीमारी है। मां को लगातार टायलेट जाना पड़ता था और मुझे लग रहा था कि उनका पेट खराब है। मैं एक दिन बाजार गया तो मैंने पिताजी से कहा कि आप पचनोल (पाचक का एक ब्रांड, जो तब बहुत प्रचलित था) खरीद लीजिए। पिताजी ने पूछा कि पचनोल क्यों खाना है। मैंने धीरे से कहा मां के लिए लेना है। मां बहुत बीमार हैं और पचनोल खा कर उनका पेट ठीक हो जाएगा।
पिताजी एकदम चुप हो गए। मेरा हाथ पकड़ कर वे बाजार से मुझे घर ले लाए। घर पर आने के बाद उन्होंने कुर्सी पर बिठाया और बताना शुरु किया कि मां के पेट में कैंसर है। एक ऐसी बीमारी जिसका इलाज ही नहीं। और शायद नम होती आंखों से उन्होंने तब लास्ट स्टेज जैसी कोई बात भी कही थी जो मेरे पल्ले नहीं पड़ने वाली थी। इतना कह कर वे चुप हो गए।
मैं भी चुप रहा। फिर इलाज का लंबा सिलसिला चलता रहा। मां और बीमार होती रही। एक दिन डाक्टर ने अस्पताल से ले जाने को कह दिया। पिताजी मां को घर लेकर आए और उसी शाम फिर ट्रेन से अपने शहर की ओर चल पड़े। इस ट्रेन में रिजर्वेशन था। ट्रेन में चढ़ते ही मुझे वो टीटीई याद आ गया। मुझे लगा कि वो आज फिर मां को कहीं अपने जूते से रगड़ता हुआ ना जाए। एक साथ हमारे तीन बर्थ थे। मैंने पिताजी से धीरे से कहा कि मां को सबसे उपर वाली बर्थ पर लिटा देते हैं। लेकिन पिताजी कहने लगे नहीं नीचे ही उन्हें आराम रहेगा। शायद वे पिछली बार टीटीई वाली बात भूल गए थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्हें कैसे बताउं कि टीटीई आए तो मां उपर वाले बर्थ पर अगर रहेगी तो टीटीई उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। लेकिन मैं फिर चुप रहा।
मैं कब सोया, और कब जागा मुझे याद नहीं।
अब आज अगर थोड़ा आगे बढ़ कर स्वीकार कर लूं कि अब तक नहीं जागा हूं तो आप मुझे पागल कहेंगे। लेकिन हकीकत यही है।
शहर में फिल्म लगी थी "अंखियों के झरोखों से" मां से मैंने कहा कि मैं भी फिल्म देखना चाहता हूं। मां लेटी-लेटी बोली चले जाओ। मैंने पूरी फिल्म देखी। इस फिल्म को देखने के बाद पहली बार मैं कैंसर नामक बीमारी के सच से रुबरु हुआ। फिल्म देखने के बाद मैं बहुत उदास हुआ। और यही सोचता रहा कि फिल्म की नायिका काश ठीक हो जाती। शाम को मैं जब घर आया तो मां ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा कि फिल्म कैसी लगी। मैंने मां से कहा कि फिल्म बहुत ही अच्छी थी। फिर बात आगे बढ़ाते हुए मां ने मुझसे ये जानना चाहा कि फिल्म की कहानी क्या थी। मुझे फिल्म जितनी समझ में आयी थी मैंने बता दिया। बस आखिर में मैंने ये कहा कि हीरोइन को कैंसर हो गया था लेकिन वो एकदम ठीक हो गई और फिर हीरो से उसकी शादी भी हो गई। ये एकदम अक्समात बोला गया झूठ था और मां ने उस पर यकीन भी कर लिया। उसके बाद मेरी हिम्मत बढ़ने लगी। मैं मां को रोज कहने लगा कि आप एकदम ठीक हो जाएंगी। और ये कहते कहते मुझे यकीन हो चला कि मैंने जो फिल्म देखी थी उसमें वाकई हीरोइन ठीक हो गई थी।
लेकिन मां की तबियत सुधरने का नाम ही नहीं ले रही थी। लगातार उसका वजन कम हो रहा था। मैंने उन्हीं दिनों कहीं कैंसर पर एक विज्ञापन पढ़ लिया कि क्या आपको पता है कि कैंसर के मरीज को कितना दर्द होता है..और इसी में बताया गया था कि आप अपनी उंगलियों को दरवाजों के बीच रख कर दबाइए..और सोचिए कि इसका दस गुना दर्द कैंसर का मरीज हर मिनट सहता है।
इस विज्ञापन के बाद तो मैं सदमें में आ गया। मुझे लगने लगा कि मां जो सारी रात कराहती है वो दर्द की वजह से। और जब भी मैं या पिताजी कमरे में जाते तो वो एक मुस्कुराहट के साथ उस दर्द को दबाने की कोशिश करती है। वो पहला मौका था जब मैंने एक कागज के टुकड़े पर लिखा था कि भगवान मेरी मां को मौत दे दो।
मेरे चाहने से क्या होना था। मां तब भी जिंदा रही। मेरे चाहने के नौ महीने बाद तक। तब तक जब तक कि डाक्टर ने पिताजी कह नहीं दिया कि मार्च नहीं खीच पाएंगी।
उन्तीस मार्च से एक रात पहले यानी 28 मार्च को मुझे मां ने अपने पास बिठाया था और वो सब कहा था जिसे मैंने इसके पहले लिखा है। लेकिन 29 मार्च की सुबह मुझे याद है, मां ने पिताजी को बुलाया और कहा कि थोड़ा पानी पिला दें। पिताजी ग्लास में पानी लेकर खड़े थे। मां ने बहुत धीमी आवाज में कहा - मेरे मुंह में पानी डालिए। पिताजी ने चम्मच से उनके मुंह में पानी डाला। मां के दोनों जुड़े हुए हाथ मुझे आज भी याद हैं...जिससे उसने पिताजी को प्रणाम किया था....कहा कुछ भी नहीं था। और फिर उसकी आंखें बंद हो गईं।

(मुझसे कई लोगों ने पूछा है कि मैं पत्रकार हूं तो अपने लेखों को छपवाता क्यों नहीं? इस पर मुझे सिर्फ इतना कहना है कि ये लेख नहीं है....ये मेरे दिल की टीस है।)

5 comments:

Anonymous said...

२९ मार्च को मां को तो दर्द से मुक्ति मिल गयी थी लेकिन आपके दिल मे वह दर्द अभी भी है! लेकिन शायद यही दर्द है जो आपको आगे बढ़ने की प्रेरणा देता रहा है।

Unknown said...

कई बार जीवन में ऐसे मौके आते हैं जब स्वयं को एकदम बेबस महसूस करते हैं...

कविता से ही-

रोशनी जब चुभने लगी....
आँखे मूँद ली.....
अँधेरा जो दिखा....
उसे जानती नहीं......

आवाज़ जब शोर बना....
कर्ण ढ़क दिये.....
सन्नाटा जो सुनाई दिया....
उसे जानती नहीं......

हसीं ...रोई... हैरान...और परेशान हुई....
जब भाव थम गये...
सब शांत हो गया....
इस शांती को मैं पहचानती नहीं.....

सांसों के लय को जीवन कहा...
जब साँस रुक चली...तो जीव मृत हुआ....
जो अमृत इस मृत में छुपा ...
उसे जानती नहीं......

कौन सी दहलीज़ पर खड़ी हूँ....
अंको से दूर.....
शून्य से इतने कऱीब....
फासले कौन से मिट रहे....
यह जानती नहीं......

सन्नाटों का शोर....
भावों का अभाव....
अँधेरे में जो साया दिखा...
उसे पहचानती नहीं.....

क्या आज हो गई हर अहसास से दूर हूँ......
या फिर.....
खुद के...खुदा के....
किस के करीब हूँ....
मैं जानती नहीं......
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वेदना को जब स्व में गूंद लो तो संवेदना बन जाती है....
भुलाने की कोशिश शायद सही नहीं...मुमकिन भी नहीं...
दर्द भी जहाँ में कितने हैं...कुछ अपने हैं ...कुछ अपनो के...
फिर किसने कहा जीवन में दर्द नहीं होता...
कल था....आज है...कल भी होगा....
कुछ दवा से...कुछ दुआ से झेलना होगा...
इस भट्टी में खुद को झोंक खरा करना होगा....
माँ का दर्द कुछ कम करना होगा...जिन्दगी पर फिर से हँसना होगा....

ePandit said...

आपके संस्मरण पढ़कर कुछ पुरानी यादें ताजा हो गई। सच है इन्हें वही समझ सकता है जिसने इन्हें खुद कभी महसूस किया है।

एक ऐसा समय होता है जब आदमी खुद को निसहाय पाता है, उसका कोई प्रियजन उसे छोड़कर जाने वाला है वो कुछ नहीं कर सकता ऐसा होने से रोकने को। उस समय लगता है कि इंसान बेकार ही अहंकार करता है मैं ये हूँ मैं वो हूँ असल में वो बस किस्मत के हाथों की कठपुतली होता है।

उस समय बड़े से बड़ा नास्तिक भी आस्तिक बन जाता है। आदमी का सब अहंकार दूर हो जाता है। होंठों पर बस दुआ और आंखों में आंसू होते हैं।

ऐसा एकाध बार जिंदगी में सब के साथ होता है पर ज्यादा तकलीफ तब होती है जब जाने वाला दर्द में जाता है।

debashish said...

आपकी माताजी बेहद साहसी थीं। और वो आपको बहुत चाहती थीं ये बात हमेशा याद रखियेगा।

Unknown said...

ist really mamu bahut dardanak hai mere ko to aashu nikal aaya i m golu frnd frm dehri on sone